अब अंतरिक्ष में बनेगी बिजली, समस्याएं भी कम नहीं

राम यादव
चीन सौर ऊर्जा को पृथ्वी पर लाने के लिए अंतरिक्ष में फ़ोटोवोल्टाइक बिजली घर बनाने जा रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका तथा यूरोप सहित कई दूसरे देशों की अंतरिक्ष एजेंसियां भी अंतरिक्ष में बिजली घर बनाने के लिए कमर कस रही हैं। चीन का कहना है कि वह 2030 के बदले 2028 में ही अंतिरक्ष में अपने फ़ोटोवोल्टाइक संयंत्र का निर्माण शुरू कर देगा।

इस के लिए पृथ्वी से 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर एक उपग्रह (सैटेलाइट) स्थापित किया जाएगा। यह उपग्रह सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को फ़ोटोवोल्टाइक पैनलों द्वारा पहले बिजली में बदलेगा। बिजली को बिना किसी केबल के पृथ्वी पर भेजने के लिए उपग्रह उसे माइक्रोवेव रेडियो तरंगों की बीम का या लेज़र बीम का रूप देगा। पृथ्वी पर उपग्रह की दिशा में लक्षित एंटेनों वाले रिसीवर स्टेशन होंगे, जो माइक्रोवेव या लेज़र बीम को पुनः सामान्य स्वच्छ बिजली में बदल देंगे।

इस विधि से चीन की पहली परीक्षण परियोजना में वैसे तो केवल 10 किलोवाट ही बिजली बनेगी, पर दुनिया में उसका सिक्का जम जाएगा। चीन का कहना है कि 2028 में होने वाले इस पहले प्रयास के दो ही वर्ष बाद, एक कहीं बड़ा और कहीं अधिक क्षमता वाला उपग्रही सौर बिजली घर पृथ्वी से 36 हज़ार किलोमीटर दूर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित किया जाएगा। उसकी सहायता से ऐसे प्रयोग आदि किए जाएंगे कि 2035 तक चीन का अंतरिक्ष में एक ऐसा सौर बिजली घर बन सके, जिसकी क्षमता 10 मेगावाट के बराबर हो।

भू-स्थिर कक्षा
भू-स्थिर कक्षा किसी उपग्रह की उस परिक्रमा-कक्षा को कहा जाता है, जिसमें वह भूमध्य रेखा के ऊपर करीब 36 हज़ार किलोमीटर की ऊंचाई पर रहकर, उसी दिशा में और उसी गति के साथ पृथ्वी की परिक्रमा करता है, जिस दिशा में और जिस गति के साथ पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। इस स्थिति में कोई उपग्रह आकाश में एक ही बिंदु पर स्थिर-सा लगता है। एक ऐसी भू-स्थिर कक्षा में किसी उपग्रह के लिए हमेशा दिन ही दिन रहता है। उसे चौबीसों घंटे खिलखिलाती धूप मिलती है। न रात होती और न कोई बादल, बरसात या हवा।

भू-स्थिर कक्षा में स्थापित बिजलीघर के फ़ोटोवोल्टाइक पैनल हर दिन चौबीसों घंटे और पूरे वर्ष सूर्य की रोशनी से अविराम बिजली बना सकते हैं। ब्रिटेन द्वारा वित्त पोषित एक शोध के अनुसार, भू-स्थिर कक्षा में उपग्रह 99 प्रतिशत से अधिक समय सूर्य की तेज धूप में रहते हैं। धूप की तेजी पृथ्वी पर के सौर पैनलों तक पहुंचने वाली तेजी की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। यही अंतरिक्ष में किसी सौर बिजली घर का सबसे बड़ा लाभ है।

अंतरिक्ष में बनेगी दिन-रात बिजली
सूर्य की धूप से बिजली बनाने के लिए घरों की छतों पर या मैदानों में लगे फ़ोटोवोल्टाइक पैनलों की इस समय सबसे बड़ी कमी यही है कि वे रात में बिजली बना ही नहीं सकते। बादल छाए होने पर, पेड़ों या मकानों की परछाई पड़ने पर या पैनलों पर धूल इत्यादि जमा होने पर उनकी कार्यक्षमता बहुत घट जाती है। अंतरिक्ष में ये समस्याएं नहीं होंगी।

चीनी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अंतरिक्ष में स्थापित उनके सौर बिजली घर, 2050 आने तक, 2 गीगावाट तक बिजली दे रहे होंगे। तुलना के लिए भारत के तमिलनाडु में बन रहा देश का सबसे बड़ा कुडानकुलम परमाणु बिजली घर जब पूरा हो जाएगा, तो उसकी क्षमता भी 2 गीगावाट के बराबर ही होगी।

चीनी वैज्ञानिकों के शोध पत्र के अनुसार, सौर बिजली घर की हर माइक्रोवेव-बीम पृथ्वी पर पहुंचकर प्रति वर्गमीटर 230 वाट बिजली देगी, जो सूर्य की प्रति वर्गमीटर सीधी धूप में छिपी बिजली के लगभग बराबर है। माइक्रोवेव की बीम के इस स्तर को मनुष्यों के लिए सुरक्षित माना जाता है, लेकिन फ़िलहाल यह मालूम नहीं है कि उसका उन लोगों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा, जो माइक्रोवेव को ग्रहण करने वाले एंटेना-स्टेशनों के पास रह रहे होंगे। कई डाइपोल-एंटेना वाले ये भू-स्टेशन कई वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैले होंगे।

चीन पहला अवश्य है, पर अकेला ऐसा देश नहीं है, जो सौर ऊर्जा के दोहन के लिए अंतरिक्ष में जाने की तैयारी कर रहा है। ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, भारत, रूस, जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया भी या तो इस दिशा में क़दम उठाने की सोच रहे हैं या जल्द ही इस होड़ में शामिल होने जा रहे हैं।

'इसरो' भी सौर बिजली घर चाहता है
भारत के अंतिरक्ष अनुसंथान संगठन 'इसरो' के प्रमुख के. सिवन ने 2018 के अपने एक भाषण में कहा कि नए परमाणु बिजली घरों के निर्माण की अनुमति मिलना अब संभव नहीं रहेगा। परमाणु कचरे का निपटारा गंभीर समस्या बनता जा रहा है। हमें अंतरिक्ष यानों पर सौर पैनल लगाने की ज़रूरत है। उसे 30 किलोमीटर लंबा और 10 किलोमीटर चौड़ा होना चाहिए। उसे अंतरिक्ष में भेजा जाएगा और वह सौर ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा तथा माइक्रोवेव ऊर्जा में बदलेगा। माइक्रोवेव वाली ऊर्जा को पृथ्वी पर भेजकर बिजली में बदला जाएगा।

भारत ने अभी कोई ठोस कदम नहीं उठाया है, किंतु ब्रिटेन ने 2035 तक 16 अरब पाउंड ख़र्च करते हुए अंतरिक्ष में एक ब्रिटिश सौर बिजली घर स्थापित करने के लिए शोध कार्य शुरू कर दिया है। ब्रिटेन के 50 से अधिक संस्थानों ने मिलकर 'स्पेस एनर्जी इनिशिएटिव' नाम का अपना एक संगठन बनाया है। उसके अध्यक्ष मार्टिन सोल्ताउ का कहना है कि अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा वाले बिजली घर बनाने के लिए जरूरी सारी प्रौद्योगिकी अभी से उपलब्ध है।

ब्रिटेन ने बनाई 12 वर्षीय योजना
सोल्ताउ के अनुसार, चुनौती परियोजना का आकार और विस्तार है, न कि तकनीकी ज्ञान। फ़िलहाल 12 वर्षों की एक योजना तैयार की गई है, जिसके अंतर्गत अंतरिक्ष में ब्रिटिश सौर बिजली घर का पहले एक मॉडल बनाया जाएगा। उसके हिस्सों को जोड़ने का काम आदमी नहीं, बल्कि रोबोट करेंगे। 2035 तक वह कुछेक गीगावाट बिजली पृथ्वी पर भेजने लगेगा।

बिजली को माइक्रोवेव बीम के रूप में बदलकर पृथ्वी पर भेजने के लिए 'सॉलिड स्टेट रेडियो फ्रीक्वेंसी पॉवर एंपलीफ़ायर और ट्रांसमीटर' का उपयोग किया जाएगा। प्रयास यह होगा कि ब्रिटिश सौर बिजली घर के हिस्से ऐसे बने-बनाए मॉड्यूल के रूप में हों, जिन्हें क्रमानुसार आपस में केवल फिट करना हो। समझा जाता है कि सारी सामग्री को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए अमेरिका के 'स्पेस एक्स स्टारशिप' जैसे रॉकेटों की कम से कम 300 उड़ानों की आवश्यकता पड़ेगी।

अमेरिका में वहां की नौसेनिक प्रयोगशाला ने अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा से बिजली बनाने के कुछ प्रयोग किए हैं। वहां के कैलिफ़ोर्निया इंस्‍टीट्यूट ऑफ़ टेक्‍नोलॉजी ने 10 करोड़ डॉलर की लागत से 2023 तक कई प्रयोग आदि करने की योजना बनाई है। तब भी अंतरिक्ष में सौर बिजली घर बनाने के प्रश्न पर जो उत्साह चीन और ब्रिटेन में देखने में आ रहा है, वह उत्साह अन्य देशों में अभी नहीं दिख रहा है।

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी 'एसा'
दिसंबर 2021 में यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी 'एसा' (ESA) ने ऐसे लोगों का एक सम्मेलन आयोजित किया, जो सौर ऊर्जा के विशेषज्ञ हैं। इस सम्मेलन में सुनने में आया कि अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा से बिजली बनाने से संबंधित प्रथम वैज्ञानिक अध्ययन 1968 से प्रकाशित होने लगे थे। उनमें कहा जा रहा था कि ऐसे बिजली घर जलवायु के लिए हानिकारक नहीं होंगे। भू-स्थिर कक्षा में होने के कारण उनकी बिजली का प्रवाह दिन-रात, मौसम और जलवायु के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त रहकर हमेशा एक जैसा रहेगा।

'एसा' की ओर से उसके एक अधिकारी, लेओपोल्ड ज़ुमेरर का मत था कि अंतरिक्ष में किसी सौर बिजली घर का आकार किसी बहुत ही लंबे-चौड़े धूपी छाते की तरह काफ़ी बड़ा रखना होगा। बिजली को माइक्रोवेव के रूप में पृथ्वी पर भेजने के लिए निश्चित आकार वाले कई एंटेनों की ज़रूरत पड़ेगी। इस कारण धूप को बिजली में बदलने वाले फ़ोटोवोल्टाइक पैनलों और बिजली को पृथ्वी पर भेजने वाले माइक्रोवेव ट्रांसमीटरों की क्षमता ऐसी होनी चाहिए कि एक से दो गीगावाट बिजली पृथ्वी पर पहुंचा करे।

15 वर्ग किलोमीटर का फ़ोटोवोल्टाइक छाता
यह तभी हो सकता है, जब फ़ोटोवोल्टाइक छाते का अकार 15 वर्ग किलोमीटर से कम नहीं हो। ज़ुमेरर के अनुसार, सब कुछ अधिकतम हल्का रखने पर भी पूरे ढांचे का भार 7600 टन हो जाएगा। यह भार मनुष्य द्वारा अंतरिक्ष में बनाई गई अब तक की सबसे भारी संरचना, 'अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन' (ISS) के भार से भी 17 गुना अधिक है।

एक अच्छी बात यह है कि फ़ोटोवोल्टाइक सेलों के निर्माण में भारी प्रगति ने उन्हें बहुत सस्ता कर दिया है। अंतरिक्ष यानों वाले फ़ोटोवोल्टाइक मॉड्यूलों की कार्यकुशलता भी बढ़कर 30 प्रतिशत तक हो गई है। एक प्रयोग में जर्मनी की एक प्रयोगशाला इन्हीं दिनों इसे 48 प्रतिशत तक पहुंचाने में सफल रही है। इसलिए हो सकता है कि अगले कुछ वर्षों में ऐसे फ़ोटोवोल्टाइक सेल भी उपलब्ध हो जाएं, जो धूप को 48 या 50 प्रतिशत तक बिजली में बदलने में सक्षम हों।

आवश्यकता इस बात की भी है कि फ़ोटोवोल्टाइक सेल या पैनल बहुत टिकाऊ, कागज़ की तरह बहुत पतले, हल्के और ऐसे हों कि उन्हें लपेटकर रोल किया जा सके या मोड़ कर चौपर्त किया जा सके, ताकि अंतरिक्ष में भेजते समय वे अंतरिक्ष यान में कम से कम जगह लें। मनुष्य नहीं, रोबोट उन्हें अंतरिक्ष में लगाने-फैलाने का काम करेंगे। 


संभावित समस्याएं
दूसरी ओर बाह्य अंतरिक्ष में सूर्य से आने वाला रेडियोधर्मी विकिरण, छोटे-छोटे उल्का-पिंड और ध्वस्त हो गए पुराने रॉकेटों-उपग्रहों के टुकड़े फ़ोटोवोल्टाइक छाते को क्षतिग्रस्त भी कर सकते हैं, भले ही 36 हज़ार किलोमीटर की ऊंचाई पर ऐसे टुकड़ों की संख्या बहुत ही कम होनी चाहिए।

कुछ वैज्ञानिक सबसे बड़ी समस्या माइक्रोवेव के रूप में सौर बिजली घरों की बिजली को पृथ्वी पर भेजने में देखते हैं। अमेरिकी और जापानी शोधकर्ताओं की एक टीम लंबे प्रयासों के बाद 2008 में पहली बार हवाई द्वीप पर बहुत थोड़ी-सी बिजली को माइक्रोवेव के रूप में 148 किलोमीटर दूर तक भेजने में सफल रही थी। प्रश्न जब 36 हज़ार किलोमीटर दूर तक बिजली भेजने का हो तो बहुत ही शक्तिशाली एंटेना बनाने पड़ेंगे।

इस बारे में एक सुझाव यह है कि हर फ़ोटोवोल्टाइक मॉड्यूल में माइक्रोवेव के ऐसे बहुत छोटे एंटेना लगे हों, जो सॉफ्टवेयर द्वारा एकसाथ संचालित किए जा सकें। ऐसे 'फ़ेज़ संचालित' एंटेना राडार तकनीक में काफ़ी प्रचलित हैं, किंतु किसी माइक्रोवेव बीम को अंतरिक्ष से पृथ्वी के धरातल तक पहुंचाने के लिए सभी एंटेनों के बीच मिलीमीटर के बराबर अचूक समन्वय होना चाहिए।

माइक्रोवेव बीम को पृथ्वी पर ग्रहण करने के लिए ऐसे रिसीवर स्टेशन बनाने होंगे, दो से तीन किलोमीटर व्यास में फैले जिनके एंटेना भी वैसे ही हों, जैसे अंतरिक्ष वाले एंटेना होंगे। रिसीवर स्टेशन ही अंतरिक्ष से आ रही माइक्रोवेव बीम को उस तरह की बिजली में बदलेगा, जिससे धरती पर सारे काम-धंधे चलते हैं। उसे इतना सस्ता भी होना चाहिए कि जनसामान्य से लेकर कल-कारखाने तक सभी उसका उपयोग कर सकें।

अंतरराष्ट्रीय समझौतों की आवश्यकता
समस्या यह भी है कि भू-स्थिर कक्षा से आ रही माइक्रोवेव तरंगें, अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रहे उपग्रहों और विमानों की तथा पृथ्वी पर की रेडियो संचार प्रणाली में बाधा डाल सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय रेडियो संचार फ्रीक्वेंसियों की पहले ही भारी कमी है। विभिन्न देशों के अंतरिक्ष में स्थापित सौर बिजली घरों के लिए भी जब माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसियों की ज़रूरत पड़ेगी तब तंगी और अधिक बढ़ जाएगी। इस स्थिति को संभालने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौतों की आवश्यकता पड़ेगी।

यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के ऊर्जा प्रभारी ज़ुमेरर सौर ऊर्जा को अंतरिक्ष से पृथ्वी पर लाने के पक्षधर तो हैं, पर यह नहीं मानते कि इससे दुनिया में बिजली की आपूर्ति में कोई क्रांति आ जाएगी। उनका कहना है कि हमें आपूर्ति में नहीं, संपूर्ण ऊर्जा प्रणाली में क्रांति चाहिए।

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