चौराहों पर लगी ये लाल बत्तियां सिगरेट के डब्बे पर लिखी हुई वैधानिक चेतावनियों से अधिक कुछ भी नहीं। ऐसा प्राय: उन चौराहों पर देखा जा सकता है जहां यातायात हवलदार दांत कुरेदते हुए खड़े रहते हैं। और जहां ये हवलदार रोजनामचे में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाकर चाय की दुकान पर सुस्ता रहे होते हैं, वहां ये लाल बत्तियां मात्र दुकानों पर टंगी हुई तख्तियों के समान है, जिन पर लिखा होता है-‘जेब कतरों से सावधान!’ यहां सिगरेट कंपनियां, दुकानदार और यातायात विभाग, सभी अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर, जिम्मेदारियों से पल्ला झाड चुके हैं।
दिल्लीवासियों में यातायात बोध भारत के अन्य कई नगरों की तुलना में अधिक है। वे इस पर गर्व भी कर सकते हैं और जिन्हें इस वक्तव्य पर विश्वास नहीं होता, वे कृपया इसे व्यंग्य मान कर पढ़ना जारी रखेँ। गूगल मानचित्र के लोकप्रिय होने से पहले दिल्ली मे ऑटो और पान वालों से पता पूछने की प्राचीन सभ्यता प्रचिलित थी। जो अब जियो की मुफ्त इंटरनेट सेवा समाप्त होने के पश्चात पुन: सजीव हो उठी है। यदि आप सभ्यता से किसी सभ्य ऑटो अथवा पान वाले से पता पूछ कर उसे सम्मानित करेंगे, तो बहुत संभव है, वह थूकेगा। क्योंकि गुटखा मुंह में दबाकर पता बताना संभव नहीं है। उसकी पीक की मात्रा, दिशा तथा निशाना देखकर उसके अनुभव का मूल्यांकन सुलभता से किया जा सकता है।
दिल्ली में एक अनुभवी ‘पता प्रदर्शक’ आपके पूछे गए पते की सटीक जानकारी देते हुए बताएगा- पहली लाल बत्ती से दाएं फिर तीसरी लालबत्ती से बाएं और फिर फ्लाय ओवर के नीचे से यू टर्न। इसके विपरीत किसी अन्य नगर में, इसी नस्ल का ऑटो वाला गुटखा थूकने के उपरांत आपको बताएगा- पहले चौराहें से दाएं, फिर तीसरे चोराहे से बाएं और फिर आगे से यू टर्न। ध्यान दें, दिल्ली का सुधी चालक लाल बत्ती का प्रयोग कर रहा है जबकि दूसरे नगर का ऑटो चालक चौराहों से संकेत दे रहा है। इन छोटी-छोटी बातों का अध्ययन करने वाले चोटी के शोधकर्ता बताते हैं कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि अन्य नगरों के अधिकांश लोग चौराहों पर लगी इन लालबत्तियों का संज्ञान ही नहीं लेते। उनके लिए तो मानो इन लाल बत्तियों का अस्तित्व है ही नहीं। ये खंबों पर लगी तीन रंग की औचित्यहीन बत्तियां हैं, कभी एक जलती है तो कभी दूसरी पर अधिकतर सभी बंद रहती हैं। हर्ष का विषय है कि दिल्लीवासी दैनिक अभ्यास में न सही, पता बताने में तो लालबत्तियों का स्मरण कर ही लेते हैं।
सिगरेट के डब्बों की वैधानिक चेतावनी, दुकानों पर लिखी निर्देशिका या चौराहे पर लगी आज्ञारूपी लाल बत्तियों की तरह हम प्रत्येक जानकारी का उल्लासपूर्वक अवहेलना करने के लिए प्रशिक्षित हैं। यह आनुवांशिक गुणसूत्र हमारी कोशिकाओं में समाहित हो चुका है। यह चरित्र पीढ़ी दर पीढ़ी प्रत्येक माता पिता द्वारा अपनी संतानों को घुट्टी में मिलाकर पिलाया जाता रहा है। हमारे इस चरित्र का अंग्रेजी इंस्पेक्टर राज भी दो सौ वर्षों में कुछ बिगाड़ नहीं पाया। संभवत: यह इंस्पेक्टर राज में पनपी मानसिकता की ही देन हैं। रिश्वत न दें, टिकट खरीदें, सड़क किनारे शौच न करें, पानी व्यर्थ न बहाएं, कर की चोरी ना करें- ऐसे कुछ उदाहारण हैं जिनकी अवहेलना कर हम अपनी भारतीय नागरिकता को गौरवान्वित करते हैं। गांधीजी के शासन के प्रति असहयोग का आव्हान, मानो आज भी जनता पूर्ण संवेदना के साथ पालन कर रही है, स्वयं बापू और अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी। काश गांधीजी अपनी मृत्यु से पूर्व जनता को बता देते कि अब असहयोग बंद करना होगा। आज न तो शासन जनता के साथ सहयोग कर रही है और न जनता, शासन-प्रशासन के साथ। सभी एक-दूसरे को लाल बत्तियां दिखा रहे हैं।
अनायास ही विचार आया, चौराहों पर लगी इन बत्तियों को हम लाल बत्ती क्यों कहते हैं, हरी बत्ती क्यों नही? क्या ये हमारे समाज की निराशावादी, बाधक व विघ्नकारी सोच का ‘सिग्नल’ तो नहीं?
कुछ बत्ती जली?
॥इति॥
(लेखक मेक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं)