बड़ी सफलता, लैब में बने रेड ब्लड सेल दिलाएंगे आनुवंशिक बीमारियों से निजात

शोधकर्ता लंबे समय से प्रयोगशाला में रक्त या रक्त के अलग-अलग घटकों को बनाने का प्रयास करते रहे हैं। ब्रिटेन में पहली बार इस प्रयास में एक ऐसी बड़ी सफलता मिली है, जो भविष्य में मुख्य रूप से एक ख़ास आनुवंशिक बीमारी से पीड़ितों के लिए बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है।
 
ब्रिटेन के ब्रिस्टल विश्वविद्यालय का कहना है कि उसके वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में बनी लाल रक्त कोशिकाओं का मानव शरीर में आधान (Transfusion) किया है। विश्वविद्यालय के एक बयान के अनुसार, यह अपने ढंग का दुनिया का पहला नैदानिक परीक्षण है। चिकित्सा विज्ञान में 'एरिथ्रोसाइट्स' कहलाने वाली इन लाल रक्त कोशिकाओं को, रक्तदान से प्राप्त ख़ून की बहुमुखी 'स्टेम' कोशिकाओं (सेल) से संवर्धित किया गया है। प्रयोगशाला में विकसित ये रक्त कोशिकाएं यदि सुरक्षित और प्रभावी साबित होती हैं, तो वे 'सिकल सेल अनीमिया' जैसे आनुवंशिक रक्त-विकारों वाले लोगों के उपचार में क्रांति ला सकती हैं।
 
पुश्तैनी रक्त विकार से पीड़ित होंगे लाभान्वित : 'सिकल सेल एनीमिया' में, जिसे 'ड्रेपैनोसाइटोसिस' भी कहा जाता है, लाल रक्त कोशिकाएं विकृत हो जाती हैं। वे हंसिये के आकार जैसी हो जाती हैं और उनमें निहित हीमोग्लोबीन का उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) हो जाता है। इसका परिणाम अक्सर रक्तक्षीणता, गंभीर दर्द और रक्तसंचार में गड़बड़ी के रूप में देखने में आता है। प्रभावित लोगों को अक्सर नियमित रक्ताधान (ट्रांसफ़्यूज़न) पर निर्भर होना पड़ता है।
 
'सिकल सेल एनीमिया' के -रोगी को उसके अपने रक्त-वर्ग का पर्याप्त बाहरी रक्त उपलब्ध होने पर भी– हो सकता है कि समय के साथ, कुछेक रक्त-वर्गों के प्रति उसका शरीर उग्र हो जाए और अनचाहे एंटीबॉडी पैदा करने लगे। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के वक्तव्य के अनुसार, इस समस्या से प्रयोगशाला में संवर्धित लाल रक्त कोशिकाओं वाला रक्ताधान करने पर बचा जा सकता है। इसी प्रकार, बहुत दुर्लभ रक्त-वर्ग वाले लोग भी प्रयोगशाला की लाल रक्त कोशिकाओं से लाभान्वित हो सकते हैं।
 
कोई साइड इफेक्ट नहीं मिला : प्रयोग के तौर पर अब तक दो व्यक्तियों के शरीर में प्रयोगशाला में विकसित लाल रक्त कोशिकाएं चढ़ाई गई हैं। ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के अनुसार, इस प्रयोग के वैज्ञानिकों को इन दोनों व्यक्तियों में कोई साइड इफेक्ट नहीं मिला। अगले चरण में, जिसमें ब्रिटेन के कुछ दूसरे विश्वविद्यालय और संस्थान भी शामिल होंगे, दो ग्रुपों में विभाजित कम से कम 10 स्वस्थ प्रतिभागियों को और कम से कम चार महीने के अंतर पर, बहुत कम मात्रा के दो रक्ताधान प्राप्त होंगे। एक ग्रुप को सामान्य लोगों के रक्तदान से प्राप्त लाल रक्त कोशिकाएं मिलेंगी और दूसरे ग्रुप को प्रयोगशाला में विकसित लाल रक्त कोशिकाएं दी जाएंगी। 
 
वैज्ञानिक जानना चाहते हैं कि प्रयोगशाला में जनित लाल रक्त कोशिकाओं का जीवनकाल क्या शरीर की अपनी रक्त कोशिकाओं की तुलना में लंबा होगा। अध्ययन टीम तो यही मानती है कि प्रयोगशाला में जनित रक्त कोशिकाओं का जीवनकाल लंबा होना चाहिये, क्योंकि वे रक्तदान से प्राप्त प्राकृतिक कोशिकाओं की तुलना में एक-समान आयु की होंगी। रक्तदान से मिली लाल रक्त कोशिकाएं अलग-अलग आयु के लोगों की होती हैं, अतः वे प्रयोगशाला वाली कोशिकाओं जितनी ताज़ी नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए, जिन लोगों को नियमित रूप से सही रक्ताधान की आवश्यकता होती है, वे भविष्य में प्रयोगशाला वाली लाल रक्त कोशिकाओं पर आसानी से निर्भर रह सकते हैं।
 
अभी और जांच-परख की आवश्यकता है : इससे पहले कि इस नए विकल्प का नियमित रूप से उपयोग हो सके, अभी और जांच-परख की आवश्यकता है। फ़िलहाल तो यही कहा जा सकता है कि ब्रिस्टल विश्वविद्यालय में हो रहा अध्ययन, प्रयोगशाला में विकसित लाल रक्त कोशिकाओं के उपयोग की दिशा में पहला क़दम है। ब्रिटिश 'सिकल सेल सोसाइटी' ने इसे बहुत ही आशाजनक बताते हुए कहा- 'यह शोधकार्य ऐसे सिकल सेल रोगियों के लिए वास्तविक आशा प्रदान करता है, जिन्हें सही रक्ताधान करना मुश्किल होता है और जिन्होंने अधिकांश दाता रक्त प्रकारों के विरुद्ध एंटीबॉडी विकसित कर लिए हैं।' 
 
'जर्मन सोसाइटी फॉर ट्रांसफ़्यूज़न मेडिसिन एंड इम्यूनोहेमेटोलॉजी' ने इस खोज का स्वागत किया है, हालांकि यह भी कहा है कि "यह सुनिश्चित करने के लिए अभी भी कई अनुत्तरित प्रश्न हैं कि इन-वाइट्रो (परखनली) प्रयोगों में बने ये एरिथ्रोसाइट्स अपनी संरचना और कार्य में अस्थि मज्जा में बनने वाले एरिथ्रोसाइट्स से कितना मेल खाते हैं।' इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के इस अध्ययन में बहुत कम मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं का आधान किया गया है, जो कि स्वस्थ-स्वैच्छिक रक्तदाताओं के संपूर्ण रक्तदान से प्राप्त एरिथ्रोसाइट्सकी सांद्रता के केवल एक प्रतिशत के बराबर है।
 
'सिकल सेल एनीमिया' अफ्रीका से पूरी दुनिया में पहुंची : लाल रक्त कोशिकाओं की 'सिकल सेल एनीमिया' एक वंशानुगत, यानी पुश्तैनी बीमारी है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चल सकती है। यह बीमारी मूलतः अफ्रीका में सहारा मरुस्थल के आस-पास के निवासियों को होने वाली बीमारी है, लेकिन समय के साथ भूमध्य सागर और मध्यपूर्व के देशों में फैलती हुई अब भारत सहित लगभग पूरी दुनिया में पहुंच गई है।

विकासशील देशों में यह बीमारी बड़े पैमाने पर जानलेवा बन गई है। यह कोई संक्रामक, यानी छूत की बीमारी नहीं है। तब भी लोगों के अलग-अलग देशों में आने-जाने और बसने से सब जगह पहुंच गई है। इसका वर्णन सबसे पहले 1910 में जेम्स हेरिक और एर्नेस्ट आइरन्स नाम के दो कैरीबियाई डॉक्टरों ने किया था। 'सिकल सेल एनीमिया' नाम 1922 से प्रचलित हुआ।
 
अमेरिका में कैंसर-रोधी गोली बनी : प्रयोगशाला में बनी लाल रक्त कोशिकाओं के पहली बार आधान के समान ही चिकित्सा विज्ञान की ओर से एक और ऐसा समाचार आया है, जिससे निकट भविष्य में बहुत से लोगों को भारी राहत मिल सकती है।
 
अमेरिका के सबसे बड़े कैंसर अनुसंधान केंद्रों में से एक है, कैलीफ़ोर्निया राज्य के दुआर्ते नाम के शहर में स्थित 'सिटी ऑफ होप।' सिटी ऑफ होप एक अनुसंधान केंद्र होने से साथ-साथ कैंसर की विभिन्न बीमारियों का एक बहुत बड़ा अस्पताल और शिक्षा संस्थान भी है। उसके शोधकों ने कैंसर से लड़ने वाली एक बहुमुखी गोली बनाई है। केंद्र ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि कैंसर के एक मरीज़ को परीक्षण के तौर पर पहली गोली दी जा चुकी है।
 
कई प्रकार के कैंसर का प्रभावी इलाज : AOH1996 नाम की इस दवा के बारे में कहा जा रहा है कि वह कई प्रकार के कैंसर का प्रभावी ढंग से इलाज करती है। पहला नैदानिक परीक्षण काफ़ी प्रभावी साबित हुआ है। परिणाम उत्साहवर्धक हैं। हालांकि दवा को बाज़ार में उतारने से पहले अभी एक लंबा रास्ता तय भी करना है।
 
कैंसर विरोधी यह गोली एक विशिष्ट प्रोटीन पर लक्षित होती है। यह प्रोटीन शरीर की क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत और कोशिकाओं की प्रतिकृति (नकल/कॉपी) बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि इस दवा के उपयोग से मानव शरीर में कैंसर-ग्रस्त कोशिकाओं का बढ़ना रुक जाता है। कैंसर-ग्रस्त अंग की कोशिकाओं के रक्त के साथ मिलकर शरीर के दूसरे भागों में पहुंचने को भी– जिसे मेटास्टेस कहा जाता है– बाधित किया जा सका है। दूसरी ओर, शरीर की स्वस्थ एवं सामान्य कोशिकाओं पर इस दवा का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
 
कैंसर-अवरोधक दवा है : सिटी ऑफ होप का कहना है कि उसके शोधकों द्वारा बनाई गई दवा AOH1996 स्तन, डिम्बाशय (ओवरी), त्वचा, फेफड़े और प्रोस्टेट (पुरःस्थ) ग्रंथि के कैंसर के मामले में काफ़ी उपयोगी सिद्ध हो सकती है। आशा की जा रही है कि अमेरिका में उसे एक कैंसर अवरोधक दवा के रूप में आधिकारिक स्वीकृति मिलेगी।
 
सरकारी स्वीकृति मिलने के बाद AOH1996 को कैंसर की 'कीमोथेरेपी' जैसे अन्य उपचारों के साथ भी जोड़ा जा सकता है। शोधकर्ता आशा कर रहे हैं कि इस दवा की कारगरता को सिद्ध करने के 2024 तक उनके पास और अधिक सकारात्मक परिणाम होंगे। इसे बनाने वाली टीम की प्रमुख, प्रोफेसर लिंडा मलकास और उनके सहयोगियों का मानना है कि अमेरिका व अन्य देशों के बाजारों में उसके उपलब्ध होने से पहले आधिकारिक स्वीकृतियों का अभी एक लंबा रास्ता तय करना है। कैंसर के विभिन्न प्रकार इस समय दुनिया में सबसे अधिक जानलेवा बीमारियों में गिने जाते हैं।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala
 

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