निदा साहब की लिखी नज्म़ 'कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता' आज भी उतनी ही लोकप्रिय है जितनी अपने वक्त में थी। इस ग़जल की कैफियत देखिए कि जब ये कहीं बजती है और इसके बोल कानों तक आते हैं, तब इसे चाहने वाला खुद-ब-खुद इसके लब्जों को गुनगुनाने लगता है। यही है निदा साहब का जलवा, जो बरसो-बरस तक यूं ही कायम रहने वाला है। उनकी शायरी अलग हटकर रही और बेहद सरल जुबां में वे अकेले के दम पर पूरा मुशायरा लूट लेते थे।