किसी जमाने में कोई मर्द अगर जरा सी भी औरतों वाली हरकत कर देता था तो उसे बेहद अलग नजरों से देखा जाता था, यहां तक उसके परिजन या परिचित उसे उसी डपट देते थे। लेकिन इन दिनों बड़ी संख्या में लड़के सोशल मीडिया में लड़कियां बनकर नाच रहे हैं। तमाम तरह की रील्स और इंस्टाग्राम अकाउंट में हजारों लड़के लड़कियों के कपड़े पहनकर रील्स बना रहे हैं, हालांकि आमतौर पर इन सबके पीछे फॉलोअर्स और पैसों की कमाई एक बड़ी वजह है, लेकिन मनोचिकित्सक इसे अभिव्यक्ति की आजादी के रूप में देखते हैं।
वेबदुनिया ने ऐसी रील्स बनाने वाले लड़कों के मद्देनजर मनोचिकित्सक से चर्चा की। जानते हैं वे क्या सोचते हैं इस बदलते परिवेश के बारे में। इंदौर की मनोचिकित्सक डॉ अपूर्वा तिवारी ने बताया कि लडकों का रील्स आदि में इस तरह आना किसी तरह की मानसिक विकृति नहीं है। वे कहती हैं कि कई बार लोग अपनी जेंडर आइडेंटिटी, परफॉर्मेंस या अभिव्यक्ति के ज़रिए खुद को तलाशते हैं। सोशल मीडिया आज के युवाओं के लिए खुद को बिना डर ज़ाहिर करने का माध्यम बन चुका है। वे बताती है कि हमें हर अभिव्यक्ति को बीमारी की नज़र से नहीं देखना चाहिए।
सोशल मीडिया में लड़कियों के बेहिचक देह दिखाने के मामले में डॉ तिवारी कहती हैं— यह मानसिक रोग का मामला नहीं है। आज की महिलाएं अपने शरीर और अभिव्यक्ति पर अधिकार जताने लगी हैं। आत्मविश्वास और बॉडी पॉजिटिविटी को हमें विकृति नहीं, सामाजिक बदलाव के रूप में समझना चाहिए— जब तक इसमें कोई हानि या शोषण शामिल न हो। दरअसल, डॉक्टर्स मान रहे हैं कि यह औरतों के लिए अभिव्यक्ति का दौर है। इसीलिए कई लोग रिश्तों में भी विविधता चाह रहे हैं। विशेषज्ञ कहते हैं कि DSM-5 के अनुसार सेक्शुअलिटी एक स्पेक्ट्रम है। जब तक कोई रिश्ता आपसी सहमति और सम्मान पर आधारित है, उसे मानसिक रूप से स्वस्थ माना जाता है। रिश्तों के विकल्प व्यक्तिगत आज़ादी का हिस्सा हैं। एलजीबीटीक्यू की बढती आबादी के बारे में डॉक्टरों का सोचना है कि इन दिनों लोग अपने होने को लेकर सजग या कहें कि जागरुक हो गए हैं। कई बार ऐसा होता है कि उम्र के साथ लोग अपना सेक्शुअल ओरिएंटेशन तय कर पाते हैं। कई लोग इसे किशोरावस्था में समझते हैं, तो कुछ लोगों को ज़िंदगी के किसी और मोड़ पर अहसास होता है। यह पूरी तरह सामान्य है। इसे लेकर किसी बीमारी का नाम नहीं देना चाहिए। रिपोर्ट : नवीन रांगियाल