ओ सिहरते खिले गुलाबी फूलों
हो इतने शर्मीले धूप से शर्मा रहे
टहनियों के पीछे हो छिप कर बैठे
जैसे कोमलांगी दुल्हन घूंघट में !
मैंने कभी न देखा था तुम्हें पहले
बगिया में खिलते गर्मी में हरी झाड़ी पर
उसे उखाड़ फेंकूं बिना फूलों की झाड़ी
जैसे अरमान दबा औरत समझौता करे
दिखावा करे बगिया के लिए बन हरीभरी !
अब जब पतझड़ आ चुका, रंग बेरंग
सूनी टहनियां, पत्ते गिरे सुख रहे जमीन
ठिठुर बहार चल पड़ी दूर परदेस
सूरज की धूप भी कंबल ओढ़ सुस्ताती !
हरी झाड़ी देखो कैसे तुम्हें छिपाएं है बैठी
जैसे मां अपने लाडलों को नजर से बचाती
पतझड़ में भी हिम्मत से अटल-अडिग
खड़ी है अपने बल अपने अस्तित्व संग !
उकसा रहे हो मुझे तुम गुलाबी फूलों
रिझा रहे हो मैं भी बन जाऊं ऐसी ही
तुम्हारे और हरी झाड़ी के रिश्ते जैसी
पतझड़ में भी मुस्कुराती दुनिया से निराली !