महाराष्ट्र के पंढरपुर में श्रीकृष्ण को समर्पित एक बहुत ही पुराना मंदिर है जहां पर श्रीकृष्ण रूप में विठ्ठल और माता रुक्मिणी की पूजा होती है। आषाढ़ माह में देशभर से कृष्णभक्त पुंडलिक के वारकरी संप्रदाय और श्रीकृष्णभक्त के लोग दूर-दूर से पताका-डिंडी लेकर देवशयनी एकादशी के दिन यहां पहुंचते हैं और तब यहां महापूजा होती है। यहां पर श्रीकृष्ण हाथ कमर पर बांध कर खड़े हैं। ऐसा क्यों और क्यों कहते हैं श्रीकृष्ण को विट्ठल, जानिए।
6वीं सदी में संत पुंडलिक हुए जो माता-पिता के परम भक्त थे। उनके इष्टदेव श्रीकृष्ण थे। माता-पिता के भक्त होने के पीछे की लंबी कथा है। एक समय ऐसा था जबकि उन्होंने अपने ईष्टदेव की भक्ति छोड़कर माता-पिता को भी घर से निकाल दिया था परंतु बाद में उन्हें घोर पछतावा हुआ और वे माता-पिता की भक्ति में लीन हो गए। साथ ही वे श्रीकृष्ण की भी भक्ति करने लगे।
उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन श्रीकृष्ण रुकमणीजी के साथ द्वार पर प्रकट हो गए। तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।'
उस वक्त पुंडलिक अपने पिता के पैर दबा रहे थे, पिता का सिर उनकी गोद में था और उनकी पुंडलिक की पीठ द्वार की ओर थी। पुंडलिक ने कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए अभी मैं आपका स्वागत करने में सक्षम नहीं हूं। प्रात:काल तक आपको प्रतीक्षा करना होगी। इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन: पैर दबाने में लीन हो गए।
भगवान ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गए। ईंट पर खड़े होने के कारण उन्हें विट्ठल कहा गया और उनका यही स्वरूप लोकप्रियता हो चली। इन्हें विठोबा भी कहते हैं। ईंट को महाराष्ट्र में विठ या विठो कहा जाता है।
पिता की नींद खुलने के बाद पुंडलिक द्वार की और देखने लगे परंतु तब तक प्रभु मूर्ति रूप ले चुके थे। पुंडलिक ने उस विट्ठल रूप को ही अपने घर में विराजमान किया। यही स्थान पुंडलिकपुर या अपभ्रंश रूप में पंढरपुर कहलाया, जो महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ है। पुंडलिक को वारकरी संप्रदाय का ऐतिहासिक संस्थापक भी माना जाता है, जो भगवान विट्ठल की पूजा करते हैं। यहां भक्तराज पुंडलिक का स्मारक बना हुआ है। इसी घटना की याद में यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है।