भारतीय संस्कृति के दो प्रकाश स्तंभ : श्री राम और श्री कृष्‍ण

शरद सिंगी
अयोध्या में भगवान श्री राम के दिव्य मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के मंगलमय महाप्रसंग पर आज संपूर्ण भारतवर्ष राममय है, सारा समाज आल्हादित व आनंदविभोर है तथा भक्तिरस में डूबा हुआ है। अनादि काल से अनेक ऋषियों और मनीषियों ने सनातन धर्म की स्थापना हेतु पृथ्वी पर जन्म लिए विभिन्न अवतारों, विशेषकर राम और कृष्ण, के जीवन पर अ‍गणित ग्रंथों और अद्‍भुत काव्यों की रचना की है और आगे भी करते रहेंगे। 
 
आध्यात्मिक उत्थान के इस संधिकाल में इन दो विशिष्ट अवतारों पर मानव जीवन को रस से भर देने वाले कुछ विचार यहां प्रस्तुत हैं। 
 
भगवान राम और भगवान कृष्‍ण दोनों ने अवतार तो अलग-अलग युगों में लिया किंतु युगांतर उन्हें पृथक नहीं कर सके। वे एक ही ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। एक मर्यादापुरुषोत्तम तो दूसरा लीलापुरुषोत्तम। एक भक्तवत्सल तो दूसरा शरणागतवत्सल। 
 
भगवान राम के जीवन चरित्र से प्रकट है कि अपने भक्तों का जीवन प्रकाशित करने के लिए परमेश्वर स्वयं राम का रूप धारण कर एक दिव्य कथा के पात्र के रूप में अवतरित हुए। वे कहानी की सीमा में रहकर एक आदर्श नर के रूप में मर्यादित आचरण करते हैं इसलिए राम मर्यादापुरुषोत्तम हैं। 
 
महर्षि तुलसीदास के अनुसार- 
 
'एक अनीह अरूप अनामा,
अज सच्चिदानंद पर धामा।।
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना,
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना'।।
 
(यानी जो परमेश्वर है हैं, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा सच्चिदानंद और परमधाम हैं, जो सब में व्यापक एवं विश्‍वरूप हैं, उन्हीं भगवान ने अपने भक्तों के लिए दिव्य शरीर धारण करके अनेक प्रकार के चरित्रों को निभाया है) इसीलिए राम भक्तवत्सल हैं। 
 
वहीं दूसरी ओर, कृष्ण स्वयं तो कहानी के पात्र नहीं बनते। वे पटकथा लिखते हैं। सूत्रधार की तरह वे बाहर रहकर महाभारत करवा देते हैं। इसलिए कृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं। वे स्वयं पात्र तो नहीं बनते पर (गीता) उपदेश देते हैं। इसलिए कृष्ण के अनुयायी होते हैं और कृष्ण के शरणागतवत्सल। तो फिर क्या दोनों अवतार भिन्न हुए? ऊपर तो शायद दोनों भिन्न दिखें किंतु इनकी अभिन्नता गूढ़ है और अब हम उसी को समझने की कोशिश करते हैं। 
 
राम स्वयं उपदेश हैं और कृष्ण उपदेशक। राम कृष्ण की गीता का मूर्तिमान स्वरूप हैं। राम स्वयं ज्ञान हैं और कृष्ण ज्ञान के संवाहक। राम स्वयं तीर्थ हैं और कृष्ण तीर्थंकर। राम नौका हैं और कृष्ण नाविक। राम पथ हैं कृष्ण पथ प्रदर्शक। राम जिव्हा हैं कृष्ण वाणी।
 
राम गहन गंभीर महासागर हैं तो कृष्‍ण उस पर उठने वाली लहरें। राम स्थिर हैं, संजीदा हैं वहीं कृष्‍ण चंचल। राम ब्रह्म हैं कृष्ण ब्रह्मांड। राम प्रकृति हैं तो कृष्ण उसकी छटा। राम वेद हैं तो कृष्‍ण उसकी ऋचाएं। राम सांसें हैं तो कृष्ण धड़कन। राम धर्म हैं कृष्‍ण धर्म के ध्वज। राम भाव हैं और कृष्ण भंगिमा। राम धनुष हैं तो कृष्ण प्रहार। 
 
अब कौन कहेगा कि वे भिन्न हैं? इसलिए गाया गया है 'जग में सुंदर हैं दो ही नाम, चाहे कृष्‍ण कहो या राम'। किंतु आज तो यही जप करने का समय है- 
 
'राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।।' 
 
सभी रामभक्तों को जय श्री राम !
 
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