आइए यहां जानते हैं भीष्माष्टमी की पौराणिक कथा...
एक समय की बात है। राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट के पार चले गए। वहां से लौटते वक्त उनकी भेंट हरिदास केवट की पुत्री मत्स्यगंधा/ सत्यवती से हुई। सत्यवती बहुत ही रूपवान थी। उसे देखकर शांतनु मोहित हो गए।
एक दिन राजा शांतनु केवट हरिदास से उनकी पुत्री सत्यवती का हाथ मांगते है, परंतु वह राजा के प्रस्ताव को ठुकरा कर कहता है कि- महाराज! आपका ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत है। अर्थात् देवव्रत हस्तिनापुर के राजा शांतनु और उनकी पटरानी गंगा के पुत्र थे। जो आपके राज्य का उत्तराधिकारी है, यदि आप मेरी कन्या के पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा करें तो मैं मत्स्यगंधा या सत्यवती का हाथ आपके हाथ में देने को तैयार हूं। परंतु राजा शांतनु इस बात को मानने से इनकार कर देते है।
इसी कारण देवव्रत की इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पितामह पड़ा। देवव्रत के इस वचन पर राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर उन्हें इच्छित मृत्यु का वरदान दिया। फिर महाभारत के युद्ध में शरशय्या पर लेटने के बाद भी उन्होंने प्राण नहीं त्यागें और फिर आठ दिनों तक युद्ध ओर चला, तब भी भीष्म मैदान में अकेले लेटे रहे और सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते रहे।
फिर जब मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण हुए तब भीष्म माघ मास का इंतजार करते रहे और माघ महीने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उन्होंने अपनी देह छोड़ने का निर्णय लिया, क्योंकि धार्मिक शास्त्रों में माघ का शुक्ल पक्ष अतिउत्तम समय माना जाता है। फिर सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगने के बाद भीष्म पितामह ने करीबन 58 दिनों तक मृत्यु शैया पर लेटे रहने के बाद माघ माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को शरीर त्याग दिया। अत: इसीलिए इस दिन उनका निर्वाण दिवस भी होता है।
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