शास्त्र कहते हैं कि पितृ अत्यंत दयालु तथा कृपालु होते हैं। वह अपने पुत्र-पौत्रों से पिण्डदान व तर्पण की आकांक्षा भी इसलिए रखते हैं ताकि उन्हें मन भर कर आशीर्वाद दे सके।
श्राद्ध-तर्पण से पितृ को संतुष्टि मिलती है। पितृगण प्रसन्न होकर संतान सुख, धन-धान्य, विद्या, राजसुख, यश-कीर्ति, पुष्टि, शक्ति, स्वर्ग एवं मोक्ष तक प्रदान करते हैं। लेकिन वे इतने नाजुक होते हैं कि छोटी सी गलती उन्हें आहत कर देती है। वे अपनी उपेक्षा से रूठ जाते हैं। अगर वे देखते हैं कि उनके वंशज सामाजिक बुराई में लगे हैं। बैर, क्रोध, नशा या अपशब्द से वे कुपित हो जाते हैं और शाप देकर जाते हैं। अत: ध्यान रखें कि ऐसा कोई काम ना करें जो उन्हें दुखी करें।
भाद्रपद पूर्णिमा तिथि से आश्विन अमावस्या तिथि तक 16 दिन श्राद्धकर्म किए जाते हैं।
पूर्णिमा श्राद्ध विधि: गाय के दूध में पकाए हुए चावल में शक्कर, इलायची, केसर व शहद मिलाकर खीर बनाएं। गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित करें। प्रज्वलित कंडे को किसी बर्तन में रखकर दक्षिणमुखी होकर खीर से तीन आहुति दें। सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते व कौए हेतु ग्रास अलग से निकालकर उन्हे खिलाएं, इनको ग्रास डालते हुए याद रखें कि आप का मुख दक्षिण दिशा की तरफ हो। साथ ही जनेऊ (यज्ञोपवित) सव्य (बाई तरह यानि दाहिने कंधे से लेकर बाई तरफ होना चाहिए।। इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएं फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें। पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।