Shri Krishna 18 August Episode 108 : जब श्रीकृष्‍ण सुदामा की झोपड़ी पर बनवा देते हैं राजमहल

अनिरुद्ध जोशी

मंगलवार, 18 अगस्त 2020 (22:16 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 18 अगस्त के 108वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 108 ) में देवशिल्पी विश्वकर्मा अपनी माया से सभी के झोपड़ों को महल में बदलना प्रारंभ करते हैं तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। सब एक दूसरे से कहते हैं अरे देखो मेरा घर भी राजमहल बना गया। आओ अंदर से देखते हैं। पूरा गांव खुशी से झूम उठता है। चक्रधर वसुंधरा और उनके बच्चों के पास ही खड़ा हुआ या चमत्कार देखता रहता है। अंत में सभी के झोपड़े भव्य महल में बदल जाते हैं।
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं कि सबके घर तो राजमल बन गए अब मेरे सुदामा की बारी है। फिर देवशिल्पी विश्वकर्मा सुदामा के घर को श्रीकृष्‍ण के राजमहल की तरह निर्मित कर देते हैं। यह देखकर वसुंधरा और उसके चारों बालक अचंभित रह जाते हैं। फिर उसके बालक वसुंधरा का हाथ पकड़कर कहते हैं- मां चलो अंदर चलते हैं। सभी भीतर जाते हैं तो देखकर दंग रह जाते हैं। चारों बच्चे तो खुशी के मारे उछल पड़ते हैं और वे सुंदर से पलंग के गद्दे पर कूदने लगते हैं और वसुंधरा महल को भीतर से निहारने लगती है। फिर बच्चों को एक जगह लड्डू और फल रखे हुए दिखाई देते हैं तो वे उसे खाने लगते हैं।
 
वसुंधरा एक बड़े से दर्पण में खुद का चेहरा और शरीर देखने लगती है। तभी वहां रुक्मिणी माता लक्ष्मी के रूप में प्रकट होकर वसुंधरा  की पति और ईश्वर भक्ति की प्रशंसा करके उन्हें कहती है कि मैं तुम्हें आधे चावल के बदल में जो उपहार दूंगी वह तब दूंगी जब तुम अपना जीवन पूरा करके हमारे वैकुंठ लोक आओगी अभी मैं तुम्हें चिरयौवन का वरदान देती हूं। तुम सदा जवान बनी रहोगी। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है। फिर देवी लक्ष्मी वसुंधरा को युवा बना देती हैं और उनके तन पर सुंदर राजसी वस्त्र रहते हैं। वह उनके बच्चों के तन पर भी राजसी वत्र धारण कर देती हैं। फिर देवी लक्ष्मी वहां से चली जाती हैं तो उनके पैरों के निशान बन रह जाते हैं। 
 
तभी चक्रधर ग्रामीणों के साथ महल में प्रवेश करता है। अंदर आते ही वह वसुंधरा को पहचान नहीं पाता है तब वह कहता है- भाभीजी आप ही हैं ना? वसुंधरा मुस्कुरा देती हैं तब चक्रधर कहता है- भाभीजी हम अंदर आ रहे थे तो एक तेज प्रकाश देखा जिसके कारण हम अंदर प्रवेश नहीं कर पाए। तब वसुंधरा बताती हैं कि स्वयं महादेवी महालक्ष्मी पधारी थीं यह सुनकर चक्रधर और सभी ग्रामीण अचंभित हो जाते हैं तब वसुंधरा के बालक कहते हैं कि चाचा वह चार हाथ वाली थीं और वो देखो उनके पैरों के निशान। यह देखकर चक्रधर सहित सभी ग्रामीण देवी लक्ष्मी के पैरों के निशान के सामने झुक जाते हैं। चक्रधर कहता है कि भाभी आपका घर तो अब मंदिर बन गया है।‍ फिर चक्रधर कहता है कि भाभी ये सभी ग्रामीण आपका आभार प्रकट करने आए थे। फिर सभी ग्रामीण वसुंधरा के पैर पड़कर चले जाते हैं।
 
उधर, श्रीकृष्‍ण कहते हैं- वाह रुक्मिणी वाह। आपने वसुंधरा को ऐसे निखार दिया जैसे सूखी हुई धरती वर्षा के बाद फिर से हरीभरी हो जाती है वाह। तब रुक्मिणी कहती हैं कि वसुंधरा का तो अर्थ ही धरती होता है प्रभु और जिस प्रकार धरती के लिए वसंतु ऋतु का महत्व अधिक होता है उसी तरह एक स्त्री के लिए उसके सौंदर्य और जवानी से अधिक कुछ नहीं। सो वही उसे भेंट कर दिया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सच है एक स्त्री की विशेष भावनाओं को एक स्त्री ही समझ सकती हैं।
 
उधर, वसुंधरा से चक्रधर कहता है- ये क्या कह रही हैं भाभी! आप गांव के बाहर वाले मंदिर मैं जाकर रहेंगी। तब वसुंधरा यह कहती है कि मेरे लिए इस महल में रहना तब तक उचित नहीं तब तक मेरे स्वामी नहीं जा जाते, मेरे बच्चे भले ही यहां रहें। चक्रधर कई तरह से समझाता है परंतु वसुंधरा कहती है कि मैं अपने स्वामी का हाथ थामकर ही इस राजमहल में प्रवेश करूंगी। चक्रधर वसुंधरा को प्रणाम करके कहता है- आप धन्य हैं भाभीजी। 
 
उधर, वृंदापुरी ग्राम जिसके अधीन रहता है वहां का राजा जिसका चक्रधर गुणगान करता था वह पूछता है- महामंत्री वृंदापुरी में ये सब क्या हो रहा है। कौन है जो मायाजाल फैला रहा है? रातोंरात सारी वृंदापुरी के घर हमारे राजमहल जैसे कैसे हो गए? आज जब हमने अपनी राज वाटिका से देखा तो सब ओर महल ही महल नजर आ रहे थे। हमारे राजमहल से भी बड़े महल। हमने अपने होश में देखा है या नशे में? यह सुनकर महामंत्री कहता है- नहीं महाराज राज वाटिका के बाहर आपने जो दृश्य देखा है वह न तो मायाजाल है और ना ही नशे का भ्रम है। महाराज वृंदापुरी को स्वर्गलोक का दर्पण स्वयं स्वर्गलोक के निर्माता देवशिल्पी विश्वकर्मा ने अपनी योगमाया से बनाया है। गत रात्रि देवशिल्पी विश्‍वकर्मा स्वयं वृंदापुरी में पधारे थे। वृंदापुरी के एक-एक नगरवासी ने उनके दर्शन किए हैं। 
 
यह सुनकर राजा अचंभित हो जाता है और कहता है स्वर्ग निर्माता देवशिल्पी विश्वकर्मा स्वयं हमारे राज्य में पधारे थे और किसी ने हमें खबर तक नहीं की। तब महामंत्री कहता है कि महाराज आपको जगाने की बहुत चेष्ठा की गई थी परंतु आप रोज की भांति ही आप ग‍त रात्रि भी सोमरसपान करके आप सो गए थे। लाख उठाने पर भी आपकी नींद नहीं टूटी। तब राजा कहता है कि तुम ठीक कहते हो मंत्री की हम रात को मदिरापान करके नशे में धूत पड़े थे और यही कारण है कि हमने ना तो स्वर्ग निर्माता विश्वकर्मा के दर्शन किए और ना ही उनके दिव्य चमत्कार को देख सके। धिक्कार है धिक्कार है हम पर।
 
तब महामंत्री कहता है कि नहीं महाराज धिक्कार आप पर नहीं, ये मदिरा है जिसके नशे में आप कुछ समझ नहीं पाते हैं। झूठे कवि आपकी प्रशंस कर करके झोलियां भर-भर के ले जाते हैं। इससे भी बड़ा कटु सत्य ये है महाराज की ईश्वर की प्रशंसा करने वाले सुदामा और चक्रधर जैसे ब्राह्मण कवि महाराज से उपहार पाने की जगह दंड पाते हैं। यह सुनकर राजा कहता है कि हां सुदामा के साथ तो निश्चय ही हमने घोर अन्याय किया है। तब महामंत्री कहता है कि परंतु ईश्‍वर ने आज उनके साथ ऐसा न्याय किया है कि सुदाम के कारण आज संपूर्ण वृंदापुरी सुख और शांति का कारण बन गई है। तब राजा कहता है- ये क्या कह रहे हो महामंत्री वृंदापुरी का परिवर्तन केवल सुदामा के कारण हुआ है?
 
यह सुनकर महामंत्री कहता है- हां महाराज द्वारिकाधीश उनके बालसखा है।..यह सुनकर राजा चौंक जाता है। तब महामंत्री कहता है कि उन्हीं के लिए श्रीकृष्ण राजमहल बनवाना चाहते थे। परंतु उनकी धर्मपत्नी ये नहीं चाहती थी कि जिन लोगों से सुदामा ने भिक्षा ली उन्हीं लोगों के टूटे घरों के बीच वह राजमहल में रहे। इसलिए भगवान श्रीकृष्‍ण ने वृंदापुरी के हर घर को राजमहल में बदलने का निर्णय किया और आज सुदामा का राजमहल आपके इस राजमहल से भी अधिक विशाल और वैभवशाली है महाराज। 
 
तब राजा कहता है कि जिसको हमने अपने महल से धक्के मारकर निकाल दिया था उसे भगवान श्रीकृष्ण ने आज निहाल कर दिया। सत्य है हमसे घोर अपराध हुआ है। हमने ईश्वर की प्रशंसा करने वाले सुदामा का अपमान किया। हमें दंड मिलना चाहिये परंतु ईश्वर ने हमें इसका दंड क्यों नहीं दिया? तब महामंत्री कहता है कि इसलिए महाराज की ईश्वर प्राणी को दंड देने से पहले उसे प्रायश्‍चित का एक अवसर अवश्‍य देता है। तब राजा कहता है कि पर हम इस पाप का प्रायश्चित कैसे करें? तब महामंत्री कहता है कि अगर आज्ञा हो तो मैं एक सुझाव दूं? तब राजा कहता है कहो। फिर महामंत्री कहता है कि पहले तो आप इस मदिरा को त्याग दें। सारे पापों की जड़ ये मदिरा ही है। महाराज आज सारी वृंदापुरी सुदामा के कारण स्वर्ग का दर्पण बन गई है तो क्यों ना वृंदापुरी का नाम सुदामापुरी रखा जाए? यह सुनकर राजा प्रसन्न हो जाता है और कहता है- सुदामा नगर। प्रस्ताव अच्‍छा है अच्छा है महामंत्री। वृंदापुरी को सुदामा नगर बनाने की तुरंत घोषणा की जाए।
 
उधर, सुदामा श्रीकृष्ण और उनकी पटरानियों के साथ बैठकर हास-परिहास कर रहा होता है। रुक्मिणी हंसते हुए कहती है कि अरे! नहीं नहीं सुदामाजी को देखकर यह विश्‍वास नहीं होता कि वे बचपन में ऐसी हरकतें करते होंगे। तब श्रीकृष्ण भी हंसते हुए कहते हैं- तुम्हें हमारा विश्‍वास नहीं होता तो सुदामा से ही पूछ लो, क्यों सुदामा? सुदामा शरमा जाता है तो श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे क्या दुल्हनों की तरह लजा रहे हो बताओ ना कि सांदिपनी के आश्रम में किस तरह तुम हमारी खीर-पुरी चुराकर खा जाते थे। तब सुदामा सकुचाते हुए कहता है कि अब बचपन में तो ये सब चलता ही है। तुम भी तो माखन चुराकर खा जाया करते थे, भूल गए क्या? यह सुनकर श्रीकृष्ण सकपका जाते हैं तो सभी रानियां जोर-जोर से हंसने लगती हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- वाह वाह सुदामाजी वाह। अरे आपके इस उत्तर का तो जवाब नहीं, बिल्कुल ब्रह्मास्त्र की तरह अचूक था।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अच्‍छा तो तीनों रानियां सुदामा का साथ दे रही हैं। अरे! सुदामा तुम तो मेरे मित्र हो तुम्हें तो मेरा साथ देना चाहिए। यह सुनकर सुदामा सकपका कर कहता है- हां हां अवश्य, एक चोर दूसरे चोर का साथ नहीं देगा तो क्या करेगा, क्यूं देवियों? यह सुनकर रुक्मिणी जोर-जोर से हंसने लगता है और कहती हैं- हां हां अवश्य। फिर सुदामा कहता है कहो मित्र क्या चुराना है माखन या खीर?
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं या फिर वह चने जो गुरु माता ने दिए थे। यह सुनकर सुदामा चुप हो जाता है और उस घटना को याद करता है। जिसमें अंत में सुदामा चुपके से सारे चने खाकर कहता है कि आज तो ब्राह्मण भूखा ही रह जाएगा। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अरे वाह! कृष्ण के रहते उसका मित्र भूखा कैसे रह जाएगा। फिर श्रीकृष्ण उसे अपने हिस्से के चने निकालकर देते हैं तो वह खाने से इनकार कर देता है।
 
फिर सुदामा गौर से श्रीकृष्ण को देखता है तो श्रीकृष्‍ण कहते हैं- काश! बचपन के वह दिन ही चुरा लाओ। फिर सुदामा कहता है कि काश वह दिन सचमुच ही चुरा सकता। बचपन तो बचपन ही होता है। न कोई छल और न कोई कपट जो मुंह में आया कह दिया। जो मन में आया कर दिया। कभी पेड़ पर चढ़ गए तो कभी नदी में कूद गए। ऊंच-नीच का भेदभाव तो कभी मन में आया ही नहीं। परंतु जब बड़े हो जाते हैं तो एक-एक कदम सोच समझकर रखना होता है।...फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि बचपन में हम केवल अपने लिए ही जीते हैं और बड़े होकर अपने बच्चों के लिए। हम अपने बच्चों के लिए क्या-क्या नहीं सहन करते।... यह सुनकर सुदामा सोच में पड़ जाता है कि मैं तो अपने बच्चों के लिए कुछ भी तो नहीं कर सका। मैं इसलिए तो यहां आया हूं। वो बैचारे आस लगाए मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। सोचते होंगे कि मैं यहां से... तभी रुक्मिणी कहती है- सुदामाजी। आप तो बचपन के विचारों में खो गए।
 
यह सुनकर सुदामा कहता है कि बचपन के विचरों में नहीं बच्चों के बारे में सोच रहा था। घर से बिदा हुए कई दिन हो गए। बैचारे वह मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यहां आकर तो जैसे मैं उन्हें भूल ही गया हूं। यह कहते हुए सुदामा बैचेन होकर उठ खड़े होते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे सुदामा ये क्या तुम अभी से उठकर कहां जाने लगे? अरे अभी तो रात की शुरुआत हुई है। तब सुदामा कहते हैं कि बच्चों की याद ने मन को व्याकुल कर दिया है। सवेरे जल्दी उठकर वृंदापुरी की यात्रा भी तो करनी है ना। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ये क्या कह रहे हो सुदामा अरे अभी तो जी भरकर बातें भी नहीं हुई है।
 
फिर सुदामा शयन कक्ष में चला जाता है। तब श्रीकृष्ण रुक्मिणी के सामने बांसुरी बजाते हैं तो रुक्मिणी पूछती है- क्या बात है प्रभु! आज आप फिर से उदास धुन बजा रहे हैं? सुदामा के दुख तो अब दूर हो चुके हैं। कहीं ऐसा तो नहीं प्रभु की आपने उसे चने चुराने और खीर चुराने का दंड दिया है। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- नहीं मैं किसी को दंड नहीं देता, मैं तो इसलिए दुखी हूं कि अब उससे बिछड़ने का का समय आ गया है। जय श्रीकृष्णा।
 
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