Shri Krishna 4 Sept Episode 125 : जब प्रद्युम्न संभरासुर के पुत्र सिंघकेतु का वध कर गिरा देता है विजयी स्तंभ

निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 4 सितंबर के 125वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 125 ) में प्रद्युम्न कहता है कि मैं आपको भ्रमित नहीं कर रहा हूं असुरेश्वर बल्कि आपका भ्रम तोड़ने का प्रायास कर रहा हूं। मैं आपको स्मरण करा देना चाहता हूं कि मेरी और आपकी भेंट पहले भी हो चुकी है। आप ही ने तो मुझे अपने हाथों में लेकर मुझे सीने से लगाया था और आपने ही मेरा नामकरण भी किया है। यह सुनकर संभरासुर और मायावती चौंक जाते हैं। फिर भी संभुरासुर आश्चर्य से पूछता है- मैंने तुम्हारा नामकरण किया है? यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है कि हां असुरेश्वर और जब युवराज कुंभकेतु जब मेरा वध करने आया था तब आप ही ने मुझे अभय दिया था। यह सुनकर संभरासुर, मायावती और कुंभकेतु आश्चर्य चकित और भयभित हो जाते हैं।
 
 
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यह सुनकर मायावती आश्चर्य से कहती है- युवराज कुंभकेतु तुम्हारा वध करने आया था इसका मतलब तुम भानामति के पुत्र हो? इस पर प्रद्युम्न कहता है कि हां महारानी मैं भानामति का पुत्र हूं परंतु मेरी जन्मदात्रि देवी रुक्मिणी हैं और मैं प्रद्युम्न हूं। यह सुनकर संभरासुर के तोते उड़ जाते हैं। फिर आगे प्रद्युम्न कहता है कि वासुदेव श्रीकृष्ण मेरे पिताश्री हैं। मैं प्रद्युम्न हूं असुरेश्वर जिसे आपने समुद्र में फेंक दिया था और मछली के पेट से मैं माता भानामति को मिला था। आपने श्रीकृष्ण पर पाई अपनी झूठी विजय को याद रखने के लिए मेरा नाम प्रद्युम्न रखा था। हे असुरेश्वर पहचाना मुझे।
 
रसायन विद्या के द्वारा मेरी माता भानामति ने मुझे युवक बना दिया। मुझे मृत्युदंड देने जा रहे थे आप परंतु मैं ही आपकी मृत्यु हूं और कोई अपनी मृत्यु को कैसे मार सकता है। मेरी पहचान पूछ रहे थे आप। मैं तुम्हारी मृत्यु हूं यही मेरी पहचान है। संभरासुर मैं फिर आऊंगा इसलिए की मैं एक योद्धा हूं और एक योद्धा कभी अधर्म के मार्ग से युद्ध नहीं करता। मैं अपने आगमन का संकेत देकर तुमसे युद्ध करूंगा। मैं तुम्हें चेतावनी देता हूं कि जिस दिन तुम्हारा ये विजय स्तंभ टूट जाएगा उस दिन समझना की प्रद्युम्न आ गया है। याद रखना संभरासुर मैं शीघ्र ही तुम्हारे साम्राज्य पर आक्रमण करूंगा। यह कहकर प्रद्युम्न चला जाता है और यह सुनकर संभरासुर घबरा जाता है। 
 
उधर, श्रीकृष्ण और रुक्मिणी प्रद्युम्न के इस साहस की प्रशंसा करते और संभरासुर के आत्म विश्वास के टूटने पर चर्चा करते हैं।
 
फिर संभरासुर अपने सैनिकों को नगर के बाहर पहरा देने और उन्हें सतर्क रहने को कहता है और कहता है कि तुम मुझे प्रद्युम्न के पल-पल की जानकारी देना। फिर वह अपने पुत्र कुंभकेतु को विजय स्तंभ की रक्षा करने का आदेश देकर अपने पुत्र सिंघनाद को उत्तर द्वार की रक्षा का भार सौंपता है। फिर पुत्र केतुमाली और पुत्र सिंघकेतु को पूर्व और पश्चिम द्वार की रक्षा का भार सौंपता है। फिर वे सभी वहां से चले जाते हैं तो कुछ समय बाद एक गुप्तचर बताता है कि प्रद्युम्न नगरी की ओर आ रहा है। 
 
उधर, फिर प्रद्युम्न अकेला रथ पर सवार होकर संभरासुर की नगरी की ओर आता हुआ दिखाया जाता है। नगर के बहार पश्चिम द्वार पर उसका रथ रुकता है तो एक सेनापति उसे देखता है और कहता है- रुक जाओ मैं तुम्हें भीतर नहीं जाने दूंगा। यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है कि मूर्ख! लगता है कि तुम भूल गए कि मैंने उस दिन दरबार में कहा था कि मुझे कहीं जाने से और कहीं भी आने से कोई नहीं रोक सकता। फिर प्रद्युम्न अपने एक ही मायावी बाण से उस सेनापति को छोड़कर सभी सैनिकों को बेहोश कर देता है तो वह सेनामति दौड़ता हुआ भीतर चला जाता है तो प्रद्युम्न भी अपने सारथी को भीतर चलने का संकेत करता है।
 
सेनामति ये सूचना सिंघकेतु को देता है कि हमारी सेना को बेहोश करने वो भीतर आ गया है। यह सूचना देते ही सिंघकेतु के सामने प्रद्युम्न उपस्थित हो जाता है तो सिंघकेतु सैनिकों को आदेश देता है कि पकड़ लो इसे परंतु। प्रद्युम्न अपनी माया से सभी को बेहोश कर देता है। फिर सिंघकेतु और प्रद्युम्न में मायावी युद्ध होता है और अंत में प्रद्युम्न उसकी गर्दन उड़ाकर उसे संभरासुर और मायावती के चरणों में फेंक देता है। यह देखकर दोनों घबरा जाते हैं और मायावती विलाप करने लगती है। 
 
उधर, प्रद्युम्न पश्चिम द्वार के विजय स्तंभ को गिरा देता है और वहां से चला जाता है। अपने महल की गैलरी से संभरासुर और मायावती ये देखकर क्रोधित और भयभित हो जाते हैं। मायावती कहती है- स्वामी ये क्या हो रहा है? अब हमारा विजय स्तंभ की टूट गया है। स्वामी अब भी समय है इस अनर्थ हो रोक लीजिये नहीं तो महाविनाश हो जाएगा। यह सुनकर संभरासुर भड़ककर कहता है कि मायावती तुम क्या चाहती हो कि महाबली असुरेश्वर अपने पुत्र का प्रतिशोध लेना छोड़कर तुम्हारे साथ रोने बैठ जाए। नहीं मायावती कदापि नहीं मैं प्रद्युम्न को नहीं छोड़ूगा।
 
इधर प्रद्युम्न विजयी स्तंभ गिराने के बाद पुन: अपनी माता भानामति के पास लौट आता है और कहता है कि गुरुदेव मैं यह शुभ समाचार सुनाने आया हूं कि मैंने युद्ध का पहला चरण जीत लिया है। संभरासुर के एक पुत्र का वध कर दिया है मैंने। फिर भानामति कहती है कि तुमने मेरी शिक्षा और दीक्षा का मान बढ़ाया है पुत्र। परंतु पहली ही जीत पर इतना संतोष अच्छा नहीं है। तब प्रद्युम्न कहता है कि आप निश्चिंत रहे गुरुदेव अंतिम विजय भी मेरी ही होगी। तब भानामति कहती है कि कहीं यह तुम्हारा घमंड तो नहीं? तब प्रद्युम्न कहता है कि नहीं माताश्री ये तो आपकी शिक्षा और आशीर्वाद का असर है। यह सुनकर भानामति भावुक हो जाती है। फिर प्रद्युम्न कहता है कि मैं जानता हूं कि आपने किस प्रकार के कष्ट उठाएं हैं। संभरासुर का वध कर दूं फिर देखियेगा की मैं आपको कैसे रखता हूं। हवा का एक झोका भी आपको कोई कष्ट नहीं दे सकेगा।
 
यह सुनकर भानामति की आंखों में आंसू आ जाते हैं और वह कहती है कि काश हर मां को तुम्हारे जैसे ही पुत्र मिले। फिर भानामति कहती है कि तुम विष्णु के वरदान से मुझे मिल तो गए हो परंतु शीघ्र ही बिछड़ जाओगे। यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है- मैं बिछड़ जाऊंगा! परंतु क्यों माताश्री? तब भानामति कहती है कि इसलिए कि संभरासुर के वध के साथ-साथ मेरे पृथ्वीलोक पर जन्म का उद्देश्य भी पुरा हो जाएगा और मुझे मुक्ति मिल जाएगी। तुम ये समझ लो की संभरासुर के अंत के साथ-साथ मेरा भी अंत हो जाएगा।
 
यह सुनकर प्रद्युम्न घबरा जाता और कहता है- नहीं तो फिर मैं संभरासुर का वध नहीं करूंगा। नहीं करूंगा मैं संभरासुर का वध। इस पर भानामति प्रद्युम्न को समझाती है कि अपना दायित्व और कर्तव्य निभाने के बाद हम सभी को इस संसार का त्याग करना होता है। बड़ी मुश्किल से प्रद्युम्न को भानामति समझाती है और कहती है कि संभरासुर का वध कर दो यही प्रभु की इच्छा है पुत्र। तब प्रद्युम्न रोते हुए कहता है- जो आज्ञा माताश्री। 
 
फिर उधर, मायावती संभरासुर को समझाती है कि आप प्रद्युम्न से टक्कर ना लें स्वामी। तब संभरासुर कहता है कि मैं मानता हूं कि मैंने मूर्खता की जो प्रद्युम्न का वध करने का हर एक अवसर गवां दिया था बल्कि उस अशुभ बालक का लाड़-प्यार किया और उसे अभयदान दिया। ठीक है‍ कि वो माया के बल से बड़ा बन गया है और मायावी भी बन गया है परंतु मेरे सामने अभी भी वह बच्चा ही है। उसकी मायावी शक्तियों से तुम भयभित हो सकती है परंतु संभरासुर कदापि नहीं, कदापि नहीं। मैं प्रद्युम्न से युद्ध अवश्य करूंगा। प्रद्युम्न ने मुझे चुनौती दी है और मैं उस चुनौती को स्वीकार नहीं करके युद्ध नहीं करूंगा तो लोग मुझे कायर और भगोड़ा कहेंगे। मैं भगोड़ा नहीं हूं मायावती। मैं एक योद्धा हूं योद्धा। यदि युद्ध करते-करते मृत्यु आ भी गई हो वह वीर मरण होगा, वीर मरण। मैं वीरगति को प्राप्त होऊंगा।
 
फिर संभरासुर को रात्रि में सोते हुए बताया जाता है। उसे यह स्वप्न आता है कि यमदूत उसे उठाकर ले जाना चाहते हैं और वह कहता है छोड़ दो मुझे, छोड़ दो। वह भयानक भयानक स्वप्न देखता है। अंत में उसे एक सुंदर स्त्री हाथ में माला लिए हुए नजर आती है जो कहती है आओ भी। फिर वह स्त्री संभुरासर के गले में फूलों की माला डाल देती है तो वह खुश हो जाता है और फिर वह स्त्री कहती हैं जानते हो आज हमारा लग्न होने वाला है, लग्न यानि की मिलन। यह सुनकर संभरासुर गद्गद् होकर कहता है- अवश्य सुंदरी अवश्य। फिर वह सुंदरी उसका हाथ चुमकर कहती है- आओ चलें। तब संभरासुर कहता है- कहां सुंदरी? तब वह कहती है कि आज तुम्हारी और मेरी मिलन की रात है ना। फूलों की सेज पर नहीं चलोगे? तब संभरासुर कहता है- क्यों नहीं सुंदरी।
 
फिर वह सुंदरी संभरासुर का हाथ पकड़कर ले जाती है। फिर वह पूछता है- कहां है सेज सुंदरी? तब वह सुंदरी एक अर्थी को दिखाकर कहती है- वो रही। यह देखकर संभरासुर चौंक जाता है और कहता है ये क्या सुंदरी तुम मेरा उपहास कर रही हो? यह सुनकर वह हंसते हुए कहती है- मैं तुम्हारी दूल्हन मृत्यु हूं। जब मुझसे विवाह करोगे तो अर्थी ही सेज बनेगी ना? मैं मृत्यु हूं संभरासुर मृत्यु। यह सुनकर संभरासुर कहता है- मृत्यु इतनी सुंदर?
 
तब वह सुंदरी संभरासुर का हाथ पकड़कर कहती हैं फिर भी तुम मुझसे भाग रहे हो। आओ मेरे पास आओ मैं तुम्हें सेज पर लिटा दूं। संभरासुर उसका हाथ झटकर कहता है- नहीं नहीं। तब वह सुंदरी ताली बजाती है तो वहां पर राक्षसनियां जैसी महिलाएं हाथ में हथियार लेकर आ जाती है तो वह कहती है- इसे स्नान कराओ, मृत्यु का स्नान। यह सुनकर संभरासुर घबरा जाता है और जोर-जोर से कहता है नहीं नहीं मैं मरना नहीं चाहता, मैं मरना नहीं चाहता नहीं। इस घबराहट और भय में उसकी नींद खुल जाती है और वह उठकर जोर-जोर से कहने लगता है- संभरासुर को कोई भी नहीं मार सकता। संभरासुर अमर है, संभरासुर अमर है अमर। जय श्रीकृष्णा। 
 
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