बाद में पौंड्रक अपने साथी काशीराज, द्वीत और भ्राताश्री रणवीर के साथ खड़ा रहकर कहता है कि इस बूढ़े (हनुमान) ने तो हमारी नाक में दम कर दिया है। समझ में नहीं आता की इसका क्या करें। जब भी आता है बिच्छू की भांति डंक मारकर चला जाता है और हम यूंही तड़फ कर रह जाते हैं। तब काशीराज कहता है कि वासुदेव इस बिच्छू के बारे में सोचना छोड़िये और उस विषैले सांप के बार में सोचिये जो अपने बिल से निकलकर पौंड्र नगरी मैं आतंक मचाने लगा है। तब पौंड्रक कहता है- हम उसकी नगरी पर आक्रमण करके उसकी नगरी को समुद्र में फेंक देंगे। तब उसका भ्राताश्री रवणीर कहता है- नहीं वासुदेव, कृष्ण ने अपना वानर भेजा था हम भी द्वारिका में अपना वानर भेजकर उसकी नगरी को ध्वस्त कर देंगे, यही न्याय होगा। सभी को ये बात समझ में आ जाती है। तब वानर द्वीत कहता है कि मुझे द्वारिका नगरी जाने की आज्ञा दीजिये। यह सुनकर पौंड्रक कहता है- जाओ द्वीत विजयभव:।