निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 18 सितंबर के 139वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 139 ) में रुक्मिणी हनुमानजी का विराट स्वरूप देखकर दंग रह जाती है तो श्रीकृष्ण पूछते हैं- क्या हुआ देवी। कहां खो गई हैं आप? देवी मेरे परमभक्त हनुमान का विराट रूप देखकर आप भी भीमसेन की भांति मोहित हो गई हैं। तब रुक्मिणी कहती हैं- धन्य हैं आप और आपका परमभक्त। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- भीमसेन के अहंकार का हनुमान ने तो नाश किया ही है और अब बारी है दाऊ भैया की और मेरे प्रिय सखा अर्जुन की।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
फिर अर्जुन को रथ पर सवार होकर कहीं जाता हुआ बताया जाता है। तभी एक राक्षस उसके सामने आ धमकता है तो अर्जुन कहता है- रुको सारथी। रथ रुक जाता है तो अर्जुन कहता है- हे असुर कौन हो तुम और मेरा मार्ग क्यों रोक रखा है तुमने? यह सुनकर वह जोर-जोर से हंसते हुए कहता है- मैं भयासुर हूं भयासुर, बकासुर का भाई। तुम्हारे भाई भीमसेन ने मेरे भाई का वध किया था। आज मैं बकासुर के वध का प्रतिशोध लूंगा। आज तुम मेरे हाथों मारे जाओगे।.. यह सुनकर अर्जुन अपने धनुष बाण निकाल लेता है और फिर दोनों में युद्ध होता है। तब अर्जुन कहता है- हे भयासुर लगता है कि तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हें यहां खींच लाई है। यदि तुमने मेरा मार्ग नहीं छोड़ा तो मैं तुम्हें यमलोक पहुंचा दूंगा। अंत में अर्जुन उसका वध करके कहता है चलो सारथी।
फिर एक जगह नदी के किनारे वह रथ रुकवाता है और संपूर्ण नदी को देखता है और नदी से कहता है- हे देवी मैं कुंती पुत्र और द्रोण शिष्य आपका आह्वाहन करता हूं कि आप मेरे मार्ग से हट जाइये। आपका जल मेरे रास्ते में बाधा डाल रहा है।
यह सुन और देखकर श्रीकृष्ण देवी रुक्मिणी से कहते हैं- देवी त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि होने के कारण अर्जुन को घमंड आ गया है। अपनी धनुर्विद्या का अहंकार हो गया है उसे और अहंकारी लोग किसी का विरोध सहन नहीं कर सकते हैं देवी। वो देखो देवी वह नदी युग-युगों से अपने मार्ग पर बही जा रही है। उसके सामने पहुंचकर अर्जुन ये समझ रहा है कि वो उसका मार्ग रोक रही है। उसे अपना विरोध समझ रहा है और इसीलिए ये बात वह सहन नहीं कर सकता। देखो देवी अहंकार के आधीन होकर अर्जुन किस तरह नदी को घूर-घूर कर देख रहा है।
फिर अर्जुन अपना धनुष उठाकर कहता है- हे देवी कदाचित तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि मैं त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि हूं। मेरे या मेरे धनुष से निकले बाण के रास्ते में जो भी आता है वह नष्ट हो जाता है। यदि आपने मुझे मार्ग नहीं दिया तो आपका भेदन करके अपना मार्ग निर्माण करने की क्षमता मेरी धनुर्विद्या में है। मैं केवल तीन बाण आकाश में छोडूंगा। यदि इन तीन बाणों से आप मेरे मार्ग से नहीं हटी तो मेरा चौथा बाण आपका मार्ग भेदन करेगा। तीन बाण छोड़ने पर हनुमानजी की आंखें खुल जाती है और श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी एक दूसरे को देखते हैं।
फिर अर्जुन नदी से कहता है कि मैं आपको अंतिम चेतावनी दे रहा हूं कि मेरे मार्ग से हट जाइये। वर्ना मैं आपका भेदन करूंगा। तब नदी प्रकट होकर कहती है- रुक जाओ कौंतेय रुक जाओ। यदि तुम अस्त्र छोड़ोंगे तो मैं निर्जन हो जाऊंगी। यह देख और सुनकर अर्जुन मुस्कुराकर कहता है- देवी जब आप निर्जन होंगी तभी तो मुझे जाने का मार्ग मिलेगा। मैं तो यही चाहता हूं कि तुम्हारा जल सूख जाए। यह सुनकर नदी कहती है- पार्थ परंतु ये तो सोचो की मेरे जल में रहने वाली अनगिनत मछलियां और छोटे-बड़े प्राणियों का क्या होगा? जय बिना वो सारे निष्पाप प्राणी अकारण ही मारे जाएंगे। क्या तुम यही चाहते हो पार्थ। यह सुनकर अर्जुन सोच में पड़ जाता है। फिर नदी कहती है कि तुम्हें मार्ग देने के लिए यदि मैंने अपना मार्ग बदल दिया तो अनर्थ हो जाएगा, बाढ़ आ जाएगी, आसपास के सारे गांव डूब जाएंगे।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि इसका अर्थ ये हुआ की मैं अपना मार्ग बदल दूं। नहीं देवी, मैं कुंतीपुत्र अर्जुन सदा ही विजयी होता आया हूं। यदि मैं पीछे हट गया तो मेरी ये पराजय होगी और मुझे अपनी हार स्वीकार नहीं है। इसलिए आप मु्झे मार्ग दीजिये। यह सुनकर नदी कहती है कि तुम तो त्रिलोक के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि हो...यह सुनकर अर्जुन का सीना गर्व से फूल जाता है तब नदी कहती है कि क्या तुम अपने बाणों से मेरे उपर सेतु नहीं बांध सकते हो जिस पर चलकर तुम आगे जा सको। यदि तुमने बाणों का पुल बना लिया तो सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तुम्हारा प्रस्ताव उचित है देवी। यह बात तो मुझे पहले ही सोचनी चाहिए थी। फिर नदी देवी के जाने के बाद अर्जुन अपने बाणों से नदी के उपर एक सेतु बनाकर उस पर से अपने रथ को निकालने लगता है।
यह देखकर हनुमानजी श्रीकृष्ण को प्रणाम करके कहते हैं- प्रभु अर्जुन अपनी धनुर्विद्या का दुरुपयोग कर रहा है। योद्धा को जब अपने बल और ज्ञान का अहंकार हो जाता है तो उस योद्धा की योग्यता कमजोर हो जाती है। आप अर्जुन की योग्यता को विनाश के मार्ग पर आगे बढ़ने से रोकिये प्रभु। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन को मैं नहीं तुम रोकोगे। अर्जुन का अहंकार मैं नहीं बल्की तुम नष्ट करोगे। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- यदि आपकी यही आज्ञा है तो मैं इसका पालन करूंगा प्रभु।
इसके बाद रुक्मिणी श्रीकृष्ण से कहती है कि प्रभु जिस तरह आपने भीम भैया का घमंड तोड़ने के बनाने आपने दोनों भाइयों का मिलन करवा दिया था उसी तरह आप हनुमानजी और अर्जुन को मिलाकर सिर्फ अर्जुन का घमंड ही दूर नहीं करना चाहते हैं प्रभु कुछ और भी योजना है। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराकर कहते हैं- हां देवी मैं अपने प्रिय मित्र को हनुमान द्वारा ज्ञान भी देना चाहता हूं और दोनों को होने वाले महायुद्ध में साथ ही योगदान भी देंगे।
फिर हनुमानजी उस नदी के दूसरे किनारे के पास पहुंचकर पत्थर के एक सेतु के पास बैठकर श्रीराम का जप करते हैं। तभी अर्जुन उन्हें देखकर रथ रुकवाता है। फिर रथ से उतरकर देखता है और हंसते हुए कहता है- पत्थरों का सेतु। पता नहीं लोग मुझ जैसे श्रेष्ठ धनुर्धारि के होते पत्थरों का सेतु क्यों बना देते हैं। यदि वो मुझसे याचना करें और उनके लिए जहां आवश्यकता होगी मैं उनके लिए अपने बाणों का सेतु बना दूंगा।
फिर अर्जुन अपना बाण निकालकर हनुमानजी के चरणों में बाण छोड़ देता है। यह देखकर हनुमानजी आंखें खोलते हैं। फिर हनुमानजी के पास जाकर अर्जुन हंसकर कहता है- पत्थरों का सेतु हा हा हा। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- हे मनुष्य तुम हंस क्यों रहे हो? यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हंस रहा हूं पत्थरों के सेतु को देखकर। परंतु हे वानर! तुम कौन हो और इस पुराने सेतु के पास क्या कर रहे हो। तब हनुमानजी कहते हैं कि मैं एक राम भक्त हूं और उन्हीं के नाम का जाप कर रहा था। परंतु मेरी समझ में ये नहीं आया कि पत्थरों के सेतु को देखकर तुम्हें हंसी क्यों आ रही है। प्रभु श्रीराम ने भी तो बनवाया था ऐसा सेतु समुद्र पर। तब अर्जुन कहता है कि इसीलिए तो हंस रहा हूं कि श्रीराम जैसे श्रेष्ठ धनुर्धारि को पत्थरों से नहीं अपने बाणों से सेतु बनवाना चाहिए थे। श्रीराम एक श्रेष्ठ धनुर्धारि थे।
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- हां मेरे प्रभु सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि थे। उन जैसे धनुर्धारि आज तक ना हुआ है और ना कभी होगा। यह सुनकर अर्जुन क्रोधित होकर कहता है- हे वानर तुम मेरा अपमान कर रहे हो। परंतु मैं तुम्हें क्षमा करता हूं क्योंकि तुम मुझे नहीं जानते मैं त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि हूं, कुंतीपुत्र अर्जुन। धनुर्विद्या मैंने द्रोणाचार्य से सीख है। मेरे इस गांडिव से निकले तीरों ने बड़े बड़ों को नाक रगड़ने पर विवश कर दिया है। हे वानर यदि मैं प्रभु श्रीराम की जगह होता तो पत्थरों से नहीं अपने बाणों से सेतु बनाता।
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं कि यदि उसे समय बाणों का सेतु बनाया जाता तो प्रभु श्रीराम और उनकी सेना कभी लंका नहीं पहुंच पाती। यह सुनकर अर्जुन पूछता है कि क्यों, क्यों नहीं पहुंच पाती? तब हनुमानजी कहते हैं कि मुझ से भी बलवान महाकाय वानर प्रभु श्रीराम की सेना में थे। उनका भार बाणों का सेतु कैसे झेल सकता था। किसी भी वानर के पैर रखते ही बाणों का सेतु अवश्य ही टूट जाता।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि परंतु मेरे ये बाण इतने निर्बल नहीं है। मैंने स्वयं अपने बाणों का सेतु बनाया है और उसी पर दनदनाता हुआ यहां तक आया हूं। तब हनुमानजी कहते हैं कि ये असंभव है केवल मेरे जैसे वानर के बोझ से ही बाणों का सेत टूट सकता है। यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे कपि तुम तो एक सामान्य वानर हो तुम्हारा भार ही क्या? यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- अच्छा। तब अर्जुन कहता है कि त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि क्या होता है इसका तुम्हें ज्ञान कहां होगा। यदि मैंने अपने बाणों का सेतु बनाया तो कोई भी, कोई भी उसे तोड़ नहीं सकेगा।
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं कि ये तुम्हारा भ्रम है। कोई क्या मेरा ही भार तुम्हारा सेतु सह नहीं सकेगा।
रेत की दीवार की भांति बैठ जाएगा। यह सुनकर अर्जुन कहता है तुम मुझे चुनौती दे रहे हो? यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- नहीं मैं तो तुम्हें समझा रहा हूं। यह सुनकर अर्जुन कहता है- ये तुम्हारा समझाना नहीं है तुम्हारी चुनौती है और मैं इस चुनौती को स्वीकार करता हूं। मैं अब बाणों का सेतु बनाता हूं और यदि तुम उसे सेतु को तोड़ नहीं सके तो? तब हनुमानजी कहते हैं- तो मैं आपका दास बन जाऊंगा और यदि मैंने आपका बाणों का सेतु तोड़ दिया तो? तब अर्जुन कहता है- तो मुझे अपने आपको त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि कहलाने का कोई अधिकार नहीं होगा। तब हनुमानजी कहते हैं- यदि आपका यही हठ है तो बनाइये सेतु।
फिर अर्जुन नदी पर बाणों का एक सेतु बना देता है। तब अर्जुन कहता है- हे वृद्ध कपि मैंने अपने बाणों का सेतु बना दिया है अब दिखाओं इसे तोड़कर वर्ना मेरा दास बनने के लिए तैयार हो जाओ। यह सुनकर हनुमानजी श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहते हैं- प्रभु। तब श्रीकृष्ण आशीर्वाद देकर आज्ञा देते हैं। फिर हनुमानजी अपने पत्थरों के सेतु से उड़कर उस बाणों के सेतु पर कूद जाते हैं तो वह सेतु तक्षण ही टूट जाता है। यह देखकर श्रीकृष्ण हंसते हैं और अर्जुन चौंक जाता है।
हनुमानजी पुन: अर्जुन के पास आकर खड़े हो जाते हैं और हंसते हैं। यह देखकर अर्जुन निराश होकर गर्दन नीचे झुका लेता है। तब हनुमानजी कहते हैं- हे कुंतीपुत्र क्या अब भी तुम अपने आपको सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि समझते हो? यह सुनकर अर्जुन अपने कंधे पर से धनुष उतारकर कहता है- नहीं कपिश्रेष्ठ मैं सर्वश्रेष्ठ तो क्या, सामान्य धनुर्धारि कहलाने के भी योग्य नहीं रहा। फिर हनुमानजी कहते हैं- अपने बाणों के सेतु की दशा देखकर अब तुम्हें समझ में आ गया होगा कि भगवान श्रीराम ने पत्थरों का सेतु क्यों बनवाया था।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे कपि तुम जीत गए मैं हार गया। इस पर हनुमानजी कहते हैं- हे कुंतीपुत्र बात हार जीत की नहीं। बल्कि उस पाप की है जो तुमने किया है। तब अर्जुन आश्चर्य से पूछता है- कौन-सा पाप? तब हनुमानजी कहते हैं- वो पाप जो अनजाने में भी हो जाए तो क्षमा योग्य नहीं है। यह सुनकर अर्जुन कहता है- क्षमा योग्य नहीं है! ये क्या कह रहे हो तुम? तब हनुमानजी कहते हैं- हे अर्जुन तुमने अपनी धनुर्विद्या के अहंकार में श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारि मानने से इनकार किया है और इस तरह तुमने उनका अपमान किया है। हे कुंतीपुत्र तुम नहीं जानते तुमने भगवान का अपमान किया है।
यह सुनकर अर्जुन निराश और हताश होकर कहता है- ये मेरे हाथों कैसा पाप गढ़ा है। मैंने अपने भगवान का ही अपमान कर दिया। मेरे घमंड और मेरे अहंकार ने मुझे कहीं का नहीं रखा। मेरा जीवन ही नष्ट हो गया और ये केवल इस धनुर्विद्या के कारण हुआ है। फिर अर्जुन भूमि पर तीर मारकर आग उत्पन्न कर देता है। यह देखकर हनुमानजी कहते हैं- ये तुम क्या कर रहे हो वीर? इस पर अर्जुन कहता है- मैं अपने आपको अग्नि को समर्पित करने जा रहा हूं। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- परंतु यह उचित नहीं है। तब अर्जुन कहता है- अब यही उचित है। हनुमानजी उसे रोकते हैं परंतु अर्जुन नहीं मानता है तो हनुमानजी श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहते हैं- हे प्रभु। तभी वहां पर श्रीकृष्ण प्रकट होकर कहते हैं- रुक जाओ अर्जुन।
अर्जुन उन्हें देखकर आश्चर्य करता है और कहता है- मधुसुदन! मुझे अहंकार हो गया था कि मैं ही त्रिलोक्य का धनुर्धर हूं। आज मेरे अहंकार को इस कपिश्रेष्ठ ने नष्ट कर दिया है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अहंकार नष्ट हो गया है इसलिए तुम आत्मस्वाह करना चाहते हो? इसका अर्थ तो यही हुआ कि तुम अहंकार के बिना जीना ही नहीं चाहते हो? अहंकार का नष्ट होना तो अच्छी बात है।
अर्जुन कहता है कि इस कपि श्रेष्ठ के हाथों मेरा अहंकार नष्ट हुआ वह तो अच्छा ही हुआ परंतु इस अहंकार के कारण मैंने जो पाप किया वह तो नष्ट नहीं हो सकता ना? मैंने अपनी धनुर्विद्या के अहंकार में प्रभु श्रीराम को भी तुच्छ समझा। भगवान के अपमान के पाप के बोझ को मैं अपनी आत्मा पर लिए जीना नहीं चाहता। तब श्रीकृष्ण समझाते हैं कि तुम्हारे पाप का दंड तुम स्वयं को नहीं दे सकते। इसका अधिकार तो ईश्वर को है। फिर श्रीकृष्ण अग्नि को बुझा देते हैं।
फिर अर्जुन कहता है- हे वानर श्रेष्ठ तुमने मेरा अहंकार तोड़कर मुझे पाप का संकेत दिया है, मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूं। क्या तुम मुझे अपना परिचय नहीं दोगे? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- पार्थ! तुम जिसे वानरश्रेष्ठ कह रहे हो वो कोई ओर नहीं पवनपुत्र हनुमान हैं। यह सुनकर अर्जुन चौंक जाता है और उन्हें प्रणाम करता है। फिर श्रीकृष्ण बताते हैं कि मेरी ही आज्ञा से हनुमान ने तुम्हारे अहंकार को नष्ट किया है किंतु हनुमान का उद्देश्य तुम्हें नष्ट करना नहीं है। यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे पवनपुत्र मुझे क्षमा कीजिये। अनजाने में मैंने आपका अपमान किया है। तब हनुमानजी कहते हैं कि अनजाने में हुई भूल की क्षाम कैसी। हे अर्जुन! ये बात सदा याद रखना की जो योद्धा अहंकार को जीत लेता है वह सारे शत्रुओं को परास्त कर देता है।
फिर श्रीकृष्ण बताते हैं कि एक महायुद्ध होने वाला है जो कुरुक्षेत्र में होगा। तब अर्जुन पूछता है- परंतु इस युद्ध का कारण क्या होगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ये तुम्हें अभी नहीं बता सकता परंतु इस युद्ध का केंद्रबिंदु तुम ही बनोगे, धुरी भी तुम्हीं होंगे। अर्जुन ये युद्ध तुम्हें हर अवस्था में जीतना है।...फिर हनुमानजी मानसिक रूप से श्रीकृष्ण से कहते हैं कि प्रभु श्रीराम के रूप में मैं आपने दर्शन के लिए तड़प रहा हूं, कृपा कीजिये प्रभु। इसके बाद हनुमान पूछते हैं कि प्रभु अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हनुमान मैं चाहता हूं कि तुम द्वारिका आओ और मेरे यहां की वाटिका में ठहरो। तुम महाज्ञानी हो, इसका उद्देश्य तुम स्वयं ही समझ जाओगे और हां तुम्हारी सबसे बड़ी आकांक्षा भी वहीं पूरी होगी। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- जो आज्ञा प्रभु।
फिर रुक्मिणी पूछती है कि आप आज बहुत व्याकुल दिखाई दे रहे हो प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा भक्त हनुमान मेरे दर्शन के लिए बैचेन हो रहा है। तब रुक्मिणी कहती है कि इसलिए आपने उन्हें वाटिका में प्रतीक्षा करने के लिए कहा था इसमें अवश्य कोई रहस्य छुपा होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं भूल गई देवी! मैंने कहा था मुझे हनुमान द्वारा मेरे अपनों का अहंकार तोड़ना है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है अच्छा अब समझ गई कि अब दाऊ भैया की बारी है वर्ना आप हनुमान को यहां क्यों बुलाते। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक ही मुक्के से वानर द्वीत को मारकर दाऊ भैया समझ रहे हैं कि उनका हाथ महाविनाशक अस्त्र बन गया है। हनुमान को वाटिका तक पहुंचने तो दो फिर पता चलेगा कि बलवान क्या होता है और बलवान होने का गुमान क्या होता है।
उधर, द्वारिका की वाटिका के द्वार पर प्रकट होकर हनुमानजी वाटिका में प्रवेश करते हैं और फिर वे सुंदर फूलों और वृक्षों के साथ ही केले से लदे वृक्ष को देखते हैं। फिर हनुमानजी कहते हैं कि प्रभु आपकी आज्ञा के अनुसार मैं इस वाटिका में तो आ गया परंतु भूख बहुत लगी है। आपकी आज्ञा हो तो कुछ फल फूल खालूं? अपने महल में बैठे श्रीकृष्ण आज्ञा दे देते हैं। तब हनुमानजी कहते हैं- जय श्रीराम और वाटिका में फलों से लदे एक वृक्ष को वह उखाड़कर गिरा देते हैं। वृक्ष के गिरने की आवाज सुनकर द्वार के बाहर खड़े सैनिक कहते हैं- अरे वाटिका के भीतर ये आवाज कैसी, चलो देखते हैं। सैनिक हनुमानजी को देखकर कहते हैं- अरे ये वानर यहां कैसे घुस आया? चलो यहां से बाहर निकलो ये द्वारिका की वाटिका है। तब हनुमानजी कहते हैं- अरे भाई मैं कुछ फल खाने आया हूं। कुछ देर विश्राम करूंगा, मुझे जाने के लिए विवश ना करो।
यह सुनकर सैन्य प्रधान करता है- सैनिकों इसे उठाकर बाहर फेंक दो, परंतु सैनिक उन्हें उठा नहीं पाते हैं।
तब वह कहता है- अरे ये तो कोई मायावी लगता है। सैनिकों इसे मार-मार कर बाहर फेंक दो। तब हनुमानजी सभी को मारकर बाहर फेंक देते हैं। सभी सैनिक बलरामजी को जाकर कहते हैं कि द्वारिका की वाटिका में कोई उद्दंड बलवान वानर घुस आया है और बहुत उत्पात मचा रहा है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- लगता है ये वानर द्वीत वानर की मृत्यु का बदला लेने के लिए यहां आया है। यदि ऐसा है तो द्वीत की ही भांति मेरी मुष्ठी के एक ही प्रहार से वो भी नष्ट हो जाएगा।
फिर बलरामजी अपनी गदा लेकर वाटिका पहुंच जाते हैं। हनुमानजी को देखकर वह कहते हैं- अरे ये तो वृद्ध है। फिर वे हनुमानजी से कहते हैं कि ऐ वानर....परंतु हनुमानजी अपने फल खाने में ही व्यस्त रहते हैं तो वे कहते हैं वानर मैं तुमसे बात कर रहा हूं तुम मेरी बात पर ध्यान नहीं दे रहे हो क्या बहरे हो खाई जाते हो, क्या सुनाई नहीं दे रहा तुम्हें? यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं कि मैं सुन रहा है और देख भी रहा हूं लेकिन तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है कि मैं भोजन कर रहा हूं। तुममें इतना शिष्टाचार भी नहीं कि जब कोई भोजन कर रहा हो तो उसे चैन से खाना खाने देना चाहिए। यह सुनकर बलरामजी क्रोधित होकर कहते हैं वानर। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं भूख लगी है क्या? भूखे प्राणी को अधिक क्रोध आता है। यदि ऐसी बात है तो लो तुम भी खा लो।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं कि मैं यहां भोजन करने नहीं, तुम्हें यहां से चले जाने का आदेश देने आया हूं। इस वाटिका की तुमने जो दशा की है उसके लिए मैं तुम्हें अवश्य दंड देता परंतु तुम वृद्ध हो इसलिए मैं तुम्हें क्षमा कर रहा हूं, जाओ चले जाओ यहां से। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- मुझे आदेश देने वाले मनुष्य, तुम कौन हो? यह सुनकर बलरामजी कहते हैं कि मैं, मैं बलराम हूं बलराम। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- बलराम, कौन बलराम? इस त्रिलोक में केवल एक ही राम है मेरे प्रभु श्रीराम। ये बलराम कहां से आ गया? तुम केवल नाम के बलराम हो, देखो कितना ताव खा रहे हो। बलवान पुरुष ना इतना ताव खाता और ना इतना क्रोध करता है। ये सब तो बलहिन होने के चिन्ह है।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं बलहिन! फिर वे अपना मुक्का बताकर कहते हैं- यदि मैंने अपने बल का प्रयोग तुम पर किया तो तुम्हारे लिए बिल्कुल अच्छा नहीं होगा वृद्ध वानर। मुझे क्रोध ना दिलाओ वर्ना मेरी एक ही मुष्ठी में सीधा पाताल पहुंच जाओगे। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- राम राम राम। लगता है कि आजकल ये रोग सभी को लग गया है। महामारी की भांति सभी ओर फैल गया है। हर कोई इस रोग से पीड़ित है। तब बलरामजी पूछते हैं- कौन-सा रोग? इस पर हनुमानजी कहते हैं- वही अहंकार का रोग। चींटीं के पर निकल आते हैं तो वह समझती है कि पूरे वायुमंडल पर उसी का राज हो गया।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- हे वृद्ध वानर अब मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। उठाओ अपनी गदा और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। फिर हनुमानजी गादा उठाकर उससे युद्ध करते हैं परंतु बलरामजी थक जाते हैं तो वे कहते हैं- हे वानर! वानर द्वीत जैसे महाकाय वानर मेरी मुठ्ठी के एक ही प्रहार से सीधा परलोक सिधार गया था और तुम, तुम मेरे हर प्रहार को रोक भी रहे हो और सह भी रहे हो। तुम कोई साधारण वानर नहीं हो सकते, बताओ कौन हो तुम और इस वाटिका में किसलिए आए हो? अवश्य ही यहां आने का तुम्हारा कोई विशेष उद्देश्य होगा बताओ।
यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- हे बलराम! आप जैसा समझ रहे हैं ऐसा कुछ भी नहीं है। मैं तो केवल अपने प्रभु का एक तुच्छ-सा भक्त हूं और अपने स्वामी की आज्ञा से आया हूं। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- भक्त और स्वामी? कौन है तुम्हारा स्वामी? देखो मुझे क्रोध ना दिलाओ वर्ना में अपना हल निकाल लूंगा और तुम नष्ट हो जाओगे, तब हनुमानजी कहते हैं- नहीं नहीं।
फिर बलरामजी कहते हैं- तुम यूं नहीं मानोगे, मुझे अपना हल निकालना ही होगा। ऐसा कहकर बलरामजी अपने हल का आह्वान करते हैं। यह देखकर हनुमानजी श्रीकृष्ण से कहते हैं कि बचाइये प्रभु बचाइये ये तो अपना हल निकाल रहे हैं। ये तो शेषनाग का अवतार हैं। इनके हल से तो तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं। तब श्रीकृष्ण रुक्मिणी के संग वहां तुरंत आ जाते हैं और बलरामजी को रोकते हैं- रुकिए दाऊ भैया।
यह देखकर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया तुम अचानक यहां? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया। इस पर बलरामजी कहते हैं- तुमने मुझे क्यों रोका कन्हैया? मैं इस वानर को दंड देने जा रहा था। ये कोई साधारण मानव नहीं है कन्हैया। ये बहुत बड़ा मायावी है। मुझे तो लगता है ये जरूर कोई असुर है।
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह दाऊ भैया ये वानर दिखाई देते हैं तुम्हें? यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- हां वानर, अरे मैंने अपनी सारी शक्ति लगा दी थी परंतु इसे कुछ नहीं हुआ। यदि ये कोई साधारण जीव होता तो मेरे प्रहार से सीधे पाताल में धंस जाता। अब मैं अपने हल का आह्वाहन करने जा रहा था कन्हैया।
तब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया जिसे आप मायावी असुर समझ रहे हैं वो कोई और नहीं पवनपुत्र हनुमान है। यह सुनकर बलरामजी आश्चर्य से कहते हैं- क्या..पवनपुत्र हनुमान? फिर बलरामजी हनुमानजी की ओर देखते हैं तो हनुमानजी उन्हें प्रणाम कहते हैं। फिर बलरामजी कहते हैं- सच कन्हैया ये पवनपुत्र हनुमान हैं?
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया। यह सुनकर बलरामजी प्रसन्न होकर कहते हैं- प्रणाम हनुमानजी। तभी तो मैं सोच रहा था कि मेरे प्रहार को सहने और रोकने वाला कोई साधारण कपि नहीं हो सकता। अवश्य ही कोई महान व्यक्ति होगा। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- बलरामजी ये कहकर मुझे क्यों लज्जित कर रहे हो। अरे आप तो शेषनाग का अवतार हैं जिस पर तीनों लोक टीके हैं। यदि आप जरा जोर से भी सांस लें तो तीनों लोक डोल जाते हैं। आपकी शक्ति के आगे मैं तो कुछ भी नहीं हूं। आपका एक वार सहन करने की भी शक्ति नहीं है मुझमें। वो तो मैं श्रीराम का नाम ले लेकर आपका प्रहार रोक रहा था। यह तो मेरे प्रभु श्रीराम की ही शक्ति थी जो आपके हर प्रहार से मेरी रक्षा कर रही थी।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- परंतु आप मुझसे उलझ क्यों रहे थे मैंने तो आपका कुछ नहीं बिगाड़ा है। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- मैं तो सेवक धर्म निभा रहा था। फिर हनुमानजी श्रीकृष्ण की ओर संकेत करके कहते हैं- जैसा स्वामी ने कहा वैसे ही मैंने किया। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- ओह! तो कन्हैया ये सब तुम्हारी ही आज्ञा से हो रहा था, परंतु क्यूं? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं दाऊ भैया। जब आप पौंड्रक से अकेले युद्ध करने जा रहे थे तभी से मैं आपके व्यवहार के प्रति चिंतित था। और जब आपने महाकाय द्वीत वानर को अपनी मुष्ठी के एक ही प्रहार से परलोक सिधारा था। मैं देख रहा था कि मेरी माया ने आप पर परदा डाल दिया था और माया आपके भीतर अहंकार के बीज बो रही थी। दाऊ भैया आप हमारे भ्राताश्री हैं इसलिए माया के इस जाल से आपको निकालना चाहता था।
तब बलरामजी कहते हैं कि मैं समझ गया हूं कन्हैया हनुमानजी से युद्ध करते हुए माया का ये भ्रम टूट गया था परंतु इसके लिए स्वयं हनुमानजी को ये कष्ट उठाना पड़ा ये ठीक नहीं हुआ। यह सुनकर हनुमानजी कहते हैं- बलरामजी ये क्या कह रहे हैं आप। मुझे तो अपने स्वामी की आज्ञा पालन का अवसार मिला। अपने पर अत्याचार करते हुए मुझे घमंडी और अत्याचारि होने का नाटक करना पड़ा। यदि उस समय अनजाने में मुझसे कोई भूल हुई हो, अनजाने में आपका अपमान हुआ हो तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा।
यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- अरे नहीं नहीं हनुमानजी ये क्या कह रहे हैं आप! क्षमा तो मुझे मांगनी चाहिए। अनजाने में मैंने आपको न जाने क्या-क्या कहा। तब हनुमानजी कहते हैं- भक्त को मान-अपमान की चिंता कहां रहती है और फिर दास से क्षमा नहीं मांगी जाती है। मैं तो आप तीनों का दास हूं। ये मेरा सौभाग्य है कि त्रैतायुग के बाद आज मैं पहली बार आप तीनों को एक साथ मैं अपने सामने देख रहा हूं। फिर हनुमानजी श्रीकृष्ण की ओर देखकर कहते हैं- स्वामी मुझे पता है कि आपने अपना वचन और मेरी अभिलाषा पूरी करने के लिए ही मुझे द्वारिका बुलाया है।
तब फिर बलरामजी श्रीकृष्ण के पास खड़े हो जाते हैं और दूसरी ओर रुक्मिणी खड़ी हो जाती हैं। फिर तीनों सिता, राम और लक्ष्मण के रूप में हनुमानजी जो दर्शन देते हैं। यह दृश्य आसमान से सभी देवी और देवता भी देखते हैं। हनुमानजी प्रभु श्रीराम के दर्शन पाकर उनकी स्तुति करते हैं। सभी देवी और देवता आसमान से फूल बरसाते हैं।
फिर अंत में रामानंद सागरजी आकर बताते हैं कि यहां तक हमने आपको भगवान श्रीकृष्ण की विविध लीलाएं दिखाई। अब हम श्रीकृष्ण के जीवन के उस मोड़ पर आ गए हैं जहां खड़े होकर वे अर्जुन को गीता का उपदेश देंगे। जय श्रीकृष्णा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा