उधर, श्रीकृष्ण कहते हैं- हे पार्थ कर्म योगी का जीवन भी एक यज्ञ ही होता है। इसलिए तुम भी आसक्ति से मुक्त होकर स्वधर्म पालन करो और युद्ध करो। हे पार्थ, यदि तुम धर्म के लिए यज्ञरूपी रण करोगे तो दूसरे लोग भी तुमसे प्रेरणा लेंगे क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं अन्य पुरुष वैसे ही आचरण करते हैं। सभी उसी का अनुसारण करते हैं। हे अर्जुन! मेरी ओर देखो, यदि मैं भी तटस्थ होकर निष्क्रीय हो जाऊं, न्याय का समर्थन ना करूं, अन्याय का प्रतिरोध ना करूं तो लोग मेरा अनुसरण करके निष्क्रीय हो जाएंगे। कर्म का त्याग करेंगे और इस लोक का सारा विधान अस्त-व्यस्त हो जाएगा, संसार नष्ट हो जाएगा। इसलिए श्रेष्ठ लोगों को धर्म को बचाने और दूसरे लोगों को धर्म पर चलाने के लिए आदर्श कर्मों को दिखाना पड़ता है। मैं भी इसी उद्देश्य से कर्म करता हूं। इसलिए नहीं करता कि मुझे कर्म करके कुछ पाना है। असाध्य को साधना है। सब तो मेरे वश में है।