राजयोग : पातंजलि की इस अतुल्य नीधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस पर अनेक टिकाएँ एवं भाष्य लिखे जा चुके है। इस ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम, रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध सिमेट दिया गया है।
(1)समाधिपाद : योगसूत्र के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है- 'योगश्चितवृत्तिर्निरोध'- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। मन में उठने वाली विचारों और भावों की श्रृंखला को चित्तवृत्ति अथवा विचार-शक्ति कहते है। अभ्यास द्वारा इस श्रृंखला को रोकना ही योग कहलाता है। इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन है।