शनिवार को माघ पूर्णिमा के मौक़े पर दिल्ली से 900 किलोमीटर दूर वाराणसी राजनीतिक हलचल का केंद्र रहा। मौक़ा था संत रविदास जी की जयंती पर हर साल होने वाले तीन दिनों के मेला का। इस बार कोविड के चलते इस आयोजन में हज़ारों की भीड़ तो नहीं जुटी लेकिन राजनीतिक सरगर्मी ख़ूब देखने को मिली। दिन की शुरुआत में केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान पहुंचे और रविदास मंदिर में पूजा-अर्चना में शामिल हुए।
उन्होंने कहा, मैं मोदी जी के सरकार के प्रतिनिधि के नाते उनका संदेश लेके इस पुण्य भूमि में आया हूँ। मेरा सौभाग्य है, पुण्य भूमि को नमन करने का। महाराज निरंजन दास जी के भी दर्शन हुए, उनका सान्निध्य मिला। प्रधनमंत्री जी का संदेश उन तक मैंने पहुँचाया। उन्होंने भी अपना आशीर्वाद और संदेश दिया, जिनसे मैं प्रधानमंत्री जी को अवगत कराऊंगा।
धर्मेंद्र प्रधान के जाने के कुछ ही घंटों के बाद इन दिनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस को मज़बूत करने में जुटीं प्रियंका गांधी रविदासियों के धर्म गुरु निरंजन दास के चरणों में बैठकर, रविदासियों का लंगर खाकर समुदाय को सम्मान देते नज़र आईं। संत रविदास के सिद्धांतों और कर्मों का उल्लेख करते हुए प्रियंका ने मोदी और योगी सरकार पर निशाना भी साधा।
उन्होंने कहा, संत रविदास जी ने जो धर्म सिखाया- वह सच्चा धर्म था, सच्चा धर्म है और उस धर्म को धारण करते हुए उसको आप निभाते हैं। वह एक सरल धर्म है। क्योंकि सच्चा धर्म हमेशा सरल धर्म होता है उसमें कोई राजनीति नहीं होती, कोई भेदभाव नहीं होता, किसी का संप्रदाय नहीं देखा जाता, जाति नहीं देखी जाती सिर्फ इंसानियत देखी जाती है और वह सच्चा धर्म जो होता है। जो सच्चा धर्म होता है वह कभी बैर नहीं रख सकता, कभी लोगों को अलग नहीं कर सकता, लोगों को तोड़ नहीं सकता।
चुनाव के लिए मुद्दों की तलाश?
रविदास जयंती से जुड़ी राजनीति को शायद चुनावी ललकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता है लेकिन यह संकेत है ज़रूर कि विपक्ष 2022 विधानसभा चुनाव के लिए मुद्दे तलाशना शुरू कर रहा है। प्रधानमंत्री के राजनीतिक क्षेत्र वाराणसी का हर मुद्दा और प्रत्येक विपक्षी गतिविधि चुनावी होती है।
पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी रविदास मंदिर दर्शन करने पहुंचे और उन्होंने कहा, जो हमारे देश में गंगा जमुनी तहज़ीब है, जो आज हमारे समाज में सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, गंगा जमुनी तहज़ीब की, वह यही है की हम एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। हम एक-दूसरे के त्यौहारों में शामिल होते रहें।
यूपी में दलित राजनीति के उभरते युवा चेहरा चंद्रशेखर आज़ाद भी इस मौक़े पर मौजूद थे। योगी शासन में रासुका के तहत जेल जा चुके आज़ाद ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सबसे सीधी राजनीतिक चुनौती दी। संत रविदास की वाणी का उल्लेख करते हुए आज़ाद ने कहा, की ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न, छोटे बड़े सब सम बेस, रविदास रहे प्रसन्न। तो गुरु महाराज तब प्रसन्न होंगे जब तमाम तरीक़े की गैरबराबरियाँ ख़त्म हो जाएंगी, और सब लोगों को बराबर के अधिकार मिले।
कोई किसी तरीक़े से परेशान नहीं होगा। तो हम आज संकल्प लेते हैं की हम 2022 मैं उत्तर प्रदेश को ऐसा ही प्रदेश बनाएंगे, जो उत्तम प्रदेश होगा। यह जंगल राज वाला नहीं जो योगी ने अभी कर रखा है। शर्म आनी चाहिए उन्हें। यहाँ बहन बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और वह बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।
देश में दलित राजनीति की सबसे कद्दावर नेता, बसपा प्रमुख मायावती ने शायद मंदिर जाना ज़रूरी नहीं समझा और सिर्फ एक ट्वीट से रविदास जयंती की बधाइयाँ दीं।
धर्म और सियासत का रिश्ता
वैसे धर्म और सियासत का रिश्ता पुराना रहा है। चुनावी माहौल में देश के तमाम नेता अक्सर रविदास मंदिर मत्था टेकने आते हैं। इस मंदिर रूपी भवन की अहमियत का सबसे बड़ा प्रमाण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भक्ति में देखने को मिला जब 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले वह बनारस आए और संत रविदास जी के दरबार में नतमस्तक हुए।
उस वादों भरे दर्शन के दो साल बाद, प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र में इस सालाना भव्य कार्यक्रम में वह ख़ुद तो शिरकत नहीं कर सके, लेकिन केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, जिनका बनारस और रविदासी समुदाय के मुद्दों और मांगों से वास्ता कम है, ज़रूर मंदिर दर्शन करने पहुंचे। रात होते-होते उत्तर प्रदेश उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या भी आशीर्वाद लेने आ गए।
वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है और 2019 के चुनावी अभियान में वे यहां पुहंचे थे लेकिन लाखों रविदासियों के लिए टूरिस्ट सेंटर और सीर गोवर्धनपुर गाँव के सौन्दर्यीकरण का प्रधानमंत्री का सपना अभी हक़ीक़त नहीं बन पाया है।
वहां लगे बोर्ड के मुताबिक़ एक भव्य इमारत, सड़कों की मरम्मत का काम और रविदास जी की भव्य मूर्ति लगाने का काम मई 2021 तक ख़त्म होना है। लेकिन अब तक निर्माण के नाम पर नींव और एक मंज़िला इमारत का ढांचा ही खड़ा हो पाया है।
रविदास मंदिर की अहमियत
1965 में बना रविदासी मंदिर दशकों से दलित श्रद्धा का केंद्र रहा है। दिखने में यह मंदिर एक गुरुद्वारे जैसा है और इसमें संत रविदास की ख़ूबसूरत मूर्ति भी स्थापित है।
इस मंदिर, जिसे आम तौर पर भवन कहा जाता है, उसके प्रबंधन का ज़िम्मा पंजाब के डेरा बल्लां सचखंड के अंतर्गत आता है। क्योंकि संत रविदास का परिवार चमड़े के व्यवसाय से जुड़ा था, तो अधिकतर चमड़े का काम करने वाले समुदाय के लोगों ने रविदासी धर्म को अपनाया।
लेकिन पंजाब के रविदासी समाज के लोग, उत्तर प्रदेश में चमड़े का काम करने वाली बिरादरी की तुलना में काफी संपन्न है और कनाडा, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों में बस चुके हैं। कई परिवारों की पीढ़ियां अब अपने जातिगत पेशे को पीछे छोड़ मुख्यधारा के काम-धंधे में पहचान बनाने लगी हैं।
हर साल होने वाले दो दिवसीय मेले में विदेशों से आने वाले रविदासी समुदाय के लोगों की संपन्नता का अंदाज़ा होता है हालांकि इस बार कोविड संक्रमण का असर इस मेले पर भी दिखा, विदेश से आने वाले लोगों की संख्या नगण्य रही है। इतना ही नहीं पंजाब और हरियाणा से आने वाले लोगों भी उतनी संख्या में नहीं पहुंच पाए जितनी संख्या में हर साल पहुंचते रहे हैं।
संत रविदास के लाखों अनुयाइयों के लिए उनका जन्म दिन एक सालाना तीर्थ के तरह है, और उसमें शिरकत करने के लिए बेगमपुरा एक्सप्रेस नाम की एक स्पेशल ट्रेन चलाई जाती रही, जो सैकड़ों श्रद्धालुओं को जालंधर से बनारस की तीर्थ यात्रा पर लेकर आती है।
लेकिन कोविड महामारी के चलते सख्ती ने इस बार बेगमपुरा एक्सप्रेस नहीं चलने दी, और मेला आयोजकों के मुताबिक महज़ तीस फ़ीसदी श्रद्धालु ही इस साल संत रविदास की जन्मस्थली, गाँव सिर गोवर्धनपुर में दो दिवसीय मेले में शिरकत करने के लिए पहुँच पाए।
इस मेला प्रबंधन की समिति से जुड़े रेशम सिंह, कोविड के कारण सीमित यातायात साधनों को श्रद्धालुओं की कमी की वजह बताते हैं, एक तो फ्लाइट्स बंद है, उसकी वजह से श्रद्धालु नहीं आए, दूसरा कोविड की वजह से भी प्रशासन ने कहा था कि ज़्यादा लोग एकत्रित ना हों। इसलिए स्पेशल ट्रेन को रद्द कर दिया गया। इस बार पिछले सालों की तुलना में महज 30 प्रतिशत लोग ही आए हैं।
हालांकि इस समुदायिक आयोजन का सियासी इस्तेमाल ख़ूब होता रहा है। डॉ. राहुल राज सीर गोवर्धन गाँव से सटे हुए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय मे पंद्रह साल से इतिहास पढ़ा रहे हैं। अब वह उस विभाग के प्राचार्य भी हैं।
सियासत और धर्म के रिश्ते को प्राचीन बताते हुए उन्होंने कहा, जो राजनीतिक गतिविधियां बढ़ रही हैं, वह निश्चित रूप से कहीं न कहीं रविदासी समाज को अपने और आकृष्ट करने के लिए चेष्टा है। और मुझे लगता है की यह चेष्टा स्वाभाविक है, और अगर हो रही है तो उसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि राजनीतिक व्यक्ति राजनीति करता तो समाज से ही है। समाज के ही लोग उसे वोट देते हैं। वन-मैन-वन-वोट, जो संविधान में लिखा है, तो रविदासी समाज के लोग भी वोटर ही हैं।
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव एक साल दूर है। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव से पहले ही इस मंदिर का दौरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया था और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने भी। एक तरह से इस आयोजन के बहाने सभी पार्टियों ने राज्य की योगी सरकार को घेरने की कोशिशें की हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में रविदासी समाज के लिए बहुत बड़ा वोट बैंक नहीं हैं, लेकिन राज्य में दलितों की कुल आबादी 20 प्रतिशत से ज़्यादा है।
दलितों को साधे रखने की कोशिश
पिछले कुछ सालों में यूपी में दलितों के साथ उत्पीड़न की घटनाओं में तेज़ी देखने को मिली है। अक्टूबर, 2020 में जारी नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक़ देश भर में दलितों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा के एक चौथाई मामले अकेले यूपी में होते हैं और बीते एक साल में यूपी में इन घटनाओं में सात प्रतिशत से ज़्यादा की बढ़ोत्तरी भी हुई है।
दलितों के अधिकार के लिए काम करने वाली संस्था नेशनल दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस -नेशनल दलित हम्यूमन राइट्स के मुताबिक़ हाथरस, लखीमपुरी खीरी और बलरामपुर की घटनाओं से राज्य में दलितों की स्थिति का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
इन सबको देखते हुए प्रियंका गांधी हों या अखिलेश यादव या फिर चंद्रशेखर रावण, इन सबकी कोशिश राज्य में दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने की है। मायावती भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहेंगी। वहीं दूसरी ओर धर्मेंद्र प्रधान और केशव प्रसाद मौर्या को रविदासी जंयती में भेजकर बीजेपी भी दलितों को साधे रखने की कोशिश की है।
वैसे पंजाब में रविदासी एक बड़े वोट बैंक के तौर पर मौजूद हैं, पंजाब में उनकी आबादी 13 प्रतिशत से ज़्यादा है। यह लोग राजनीतिक तौर पर किसी भी पार्टी की जीत हार तय करने में निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं और इन लोगों के लिए वाराणसी का सीर गोवर्धनपुर सबसे बड़ा तीर्थ है।
वैसे तो वाराणसी के इस आयोजन में पंजाब किसानों के आंदोलन की चर्चा नहीं दिखी लेकिन दिल्ली की सिंघु बॉर्डर पर संयुक्त किसान मोर्चा ने संत रविदास की जयंती बनाकर किसान आंदोलन से रविदासियों को जोड़ने का संकेत दिया है।
रविदासी समुदाय के लोग अधिकांश भूमिहीन हैं और परंपरागत तौर पर पंजाब के जाट उन्हें उपेक्षा की नजरों से देखते हैं। ऐसे में किसान आंदोलन में संत रविदास जयंती मनाने को भी लोग बदलाव की नजर से देख रहे हैं। कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन भी जातिगत राजनीती से उठने की कोशिश कर रहा है। हालांकि वाराणसी में राजनीतिक सरगर्मी से भरे हुए दिन का अंत तो श्रद्धालुओं की ख़ुशी, उनकी भक्ति से ही खत्म होता है।
रात की चकाचौंध, नाच-गाने, संत रविदास की भक्ति में झूमते श्रद्धालुओं का सिर्फ़ एक ही मक़सद होता है कि मेले के दिन उनकी ज़िन्दगी के सबसे यादगार हों। जैसे कि लुधियाना से आईं संदीप कौर ने लंगर सेवा में काम करने के बाद यह महसूस किया, बहुत ख़ुशी होती है। लगता है जैसे स्वर्ग में आ गए हों।