अर्जुन हिंगोरानी की फिल्म के लिए धर्मेन्द्र ने कभी नहीं पूछा कि उनका रोल क्या है? कितना लंबा है? कितने पैसे मिलेंगे? जब भी अर्जुन की फिल्म का ऑफर धर्मेन्द्र को मिलता वे हंसते-हंसते फिल्म साइन कर लेते। दरअसल धर्मेन्द्र उस अहसान को चुकाने की कोशिश करते जो अर्जुन ने उन पर किया था। धर्मेन्द्र का मानना था कि इस अहसान का कर्ज वे कभी भी चुका नहीं सकते हैं, लेकिन उनकी थोड़ी-बहु्त कोशिश उनके दिल को सुकून देती थी।
अर्जुन वे पहले फिल्मकार थे जब उन्होंने धर्मेन्द्र को अपनी फिल्म के लिए साइन किया था। मुंबई में अभिनेता बनने आए धर्मेन्द्र संघर्ष करते-करते हौंसला खो चुके थे। अकेले पड़ गए थे, तब अर्जुन ने उनके कंधों पर हाथ रखा था। 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' (1960) के लिए उन्होंने धर्मेन्द्र को साइन किया था जो उनकी पहली फिल्म थी।
दशकों तक हिंगोरानी फिल्में बनाते रहे। उन्होंने धर्मेन्द्र को लेकर 'कब क्यूं और कहा (1970), कहानी किस्मत की (1973), खेल खिलाड़ी का (1977), कातिलों के कातिल (1981), कौन करे कुर्बानी (1991) भी बनाई। उनकी फिल्मों के नाम में 'तीन के' आते थे। उनका विश्वास था कि इस तरह का नाम उन्हें सफलता दिलाता है। 'कैसे कहूं के... प्यार है' (2003) उनके द्वारा निर्मित अंतिम फिल्म थी। 'हाउ टू बी हैप्पी' और 'रियलाइज़ योअर ड्रीम्स' नामक उन्होंने दो किताबें भी लिखीं।
ऋषि कपूर ने एक मजेदार बात बताई। उन्होंने अर्जुन और धर्मेन्द्र के साथ कातिलों के कातिल नामक फिल्म की थी। ऋषि ने ट्वीट कर बताया कि जब शॉट रेडी होता था तब अर्जुन अपने सहयोगी से कहते थे- 'ऋषि साहब को बुलाइए' और जब धर्मेन्द्र को बुलाना होता था तब वे चिल्लाते थे 'धरमेन को बुलाओ'। धर्मेन्द्र चुपचाप आपकर अर्जुन की सारी बातें मानते थे।