Dasvi Movie Review दसवीं फिल्म समीक्षा : अभिषेक बच्चन की फिल्म आधी पटरी पर और आधी बेपटरी

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022 (15:12 IST)
नेल्सन मंडेला ने कहा था कि शिक्षा ऐसा माध्यम है जिसके जरिये दुनिया को बदला जा सकता है। इस वाक्य के इर्दगिर्द फिल्म 'दसवीं' की कहानी को बुना गया है। फिल्म कहती है कि पॉवर आपको अंधा कर देता है और शिक्षा आंखें खोल देती है। ऐसा ही वाकया होता है गंगाराम चौधरी (अभिषेक बच्चन) का जो हरित प्रदेश का मुख्यमंत्री है। भले ही यह काल्पनिक प्रदेश हो, लेकिन पात्रों की भाषा और ठसक से समझ आ जाता है कि यह हरियाणा है। आठवीं पास गंगाराम को इस बात का गर्व है कि बड़ी परीक्षा पास करके आया उनका पीए इशारों पर नाचता है। गंगाराम को एक मामले में जेल जाना पड़ जाता है और वह अपने पद पर गाय जैसी पत्नी बिमला (निम्रत कौर) को बैठा देता है जो कुर्सी पर बैठते ही पति के लिए ही रूकावट बन जाती है। इधर जेल में गंगाराम का सामना जेल सुप्रिटेंडेंट ज्योति देशवाल (यामी गौतम) से होता है जो गंगाराम से आम कैदियों जैसा सलूक कर उसकी हेकड़ी निकाल देती है। जेल में काम से बचने के लिए गंगाराम दसवीं कक्षा की परीक्षा देने का फैसला करता है और शिक्षित होने के बाद उसकी सोच में बदलाव आता है। 
 
राम बाजेपयी की कहानी का आइडिया अच्छा है, लेकिन रितेश शाह, सुरेश नैयर और संदीप लेज़ेल की स्क्रिप्ट वो बात नहीं कह पाती जिसके लिए फिल्म बनाई गई है। फिल्म की शुरुआत उम्दा है। गंगाराम के चरित्र को गढ़ने के लिए मनोरंजक दृश्य रचे गए हैं और व्यंग्यात्मक तरीके से कई बातें कही गई हैं। किस तरह से राजनीति, पॉवर, भ्रष्टाचार, खाप पंचायत के फैसले, जातिवाद का खेल चलता है ये फिल्म बिना सीरियस हुए कहती है और इसमें संवाद अहम रोल निभाते हैं। 'मॉल बनाने से माल बनता है और स्कूल बनाने से बेरोजगार बनते हैं' जैसे संवाद हंसाते हैं। गंगाराम और ज्योति की टक्कर जोरदार है। गंगाराम की साइन, ज्योति द्वारा गंगाराम को कुर्सी बनाने का काम सौंपना, जेल में गंगाराम का अन्य कैदियों से मिलने वाले सीन भी मनोरंजक हैं। 
 
फिल्म के दूसरे घंटे की शुरुआत गंगाराम की दसवीं की तैयारियों से शुरू होती है और यही से फिल्म दिशा भटक जाती है। दसवीं की तैयारी को लेकर फिल्म को खासा खींचा गया है। तैयारी करते समय गंगाराम का इतिहास में जाना 'लगे रहो मुन्नाभाई' की याद दिलाता है। लेकिन शिक्षा का गंगाराम के व्यक्तित्व में क्या और कैसे बदलाव आया है यह बात ठीक से रेखांकित नहीं की जा सकी है। सारा फोकस दसवीं की परीक्षा की तैयारियों पर देने से फिल्म अपने मूल उद्देश्य से भटक जाती है। 
 
कुछ सवाल भी उभरते हैं। गंगाराम की पत्नी नहीं चाहती थीं कि उसका पति दसवीं में पास हो, वह उसे आसानी से फेल करवा सकती थी, लेकिन ऐसा क्यों नहीं करती?  दसवीं पास करने पर कुछ ज्यादा ही फोकस कर दिया गया जबकि कहानी से इसका ज्यादा ताल्लुक नहीं है। एक पूर्व सीएम से ज्योति इतने अकड़ कर बात करती है, ये थोड़ा अटपटा लगता है। ज्योति का गंगाराम कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पाता? ज्योति का व्यवहार गंगाराम से अचानक क्यों बदल जाता है?  गंगाराम का अपनी पत्नी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाली बात भी गले नहीं उतरती।
 
निर्देशक तुषार जलोटा ने कलाकारों से अच्छा काम लिया है और फिल्म के पहले घंटे में दर्शकों को बांध कर भी रखा है। स्क्रिप्ट बाद में तुषार का साथ नहीं देती है जिस कारण वे फिल्म का मैसेज को दर्शकों के बीच अच्छी तरह से पेश नहीं कर पाए। 
 
अभिषेक बच्चन का अभिनय बढ़िया है। हरियाणवी लहजे और ठसक को उन्होंने डट कर पकड़ा है। निम्रत कौर भले ही गाय से शेरनी पलक झपकाते ही बन गई हो, लेकिन अपनी एक्टिंग में ओवरएक्टिंग का तड़का लगाकर अपने किरदार को संवारा है। एक कड़क पुलिस ऑफिसर के रूप में यामी गौतम प्रभाव छोड़ती हैं। चितरंजन त्रिपाठी और मनु ऋषि चड्ढा मंझे हुए अभिनेता हैं और अपनी-अपनी भूमिकाओं में परफेक्ट रहे। 
 
कुल मिलाकर कर 'दसवीं' अच्छे आइडिए पर बनी औसत फिल्म है। 

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