चंदू चैंपियन फिल्म सपना देखने से लेकर तो सपना पूरा होने तक की जर्नी की कहानी है। महाराष्ट्र के सांगली में रहने वाला एक लड़का मुरलीकांत पेटकर बचपन में ओलम्पिक खेल में गोल्ड मैडल जीतने का सपना देखता है और कुश्ती सीखना शुरू कर देता है। उसे नहीं पता कि वह कैसे आगे बढ़े।
घटनाएं ऐसी घटती हैं कि वह सेना में शामिल हो जाता है जहां जाकर उसे पता चलता है कि यहां कुश्ती से तो नहीं लेकिन बॉक्सिंग के जरिये ओलम्पिक में हिस्सा लिया जा सकता है। वह बॉक्सिंग सीखना शुरू करता है और आगे बढ़ता है, लेकिन उसे जंग में 9 गोलियां लग जाती है।
अपने सपने को पूरा करने का उसका संघर्ष कई गुना बढ़ जाता है। ऐसे बुरे समय में उसका परिवार भी साथ छोड़ देता है, लेकिन हार नहीं मानने की प्रवृत्ति के जरिये वह किस तरह से अपने सपने को पूरा करने में जुट जाता है, यह फिल्म में दर्शाया गया है।
फिल्म को लिखने और निर्देशित करने का काम कबीर खान ने किया है जो इसके पहले 1983 में क्रिकेट वर्ल्ड कप जीतने वाली टीम पर आधारित '83' नामक फिल्म बना चुके हैं।
'चंदू चैंपियन' को केवल स्पोर्ट्स फिल्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें एक ऐसे व्यक्ति के जीवन को दिखाया गया है जो साधन हीन और दिशाहीन होने के बावजूद सिर्फ अपने जज्बे के बूते पर ऐसा काम कर जाता है जो वे व्यक्ति भी नहीं कर पाते जिनके पास हर तरह सुविधाएं हैं।
इस खिलाड़ी और सैनिक का जीवन दर्शकों को मेहनत करने और अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रेरित करता है।
तमाम तरह की उपलब्धि हासिल करने के बाद भी मुरलीकांत पेटकर का नाम शायद ही किसी ने सुना हो। वैसे भी हमारे देश में खिलाड़ियों के साथ इस तरह के हादसे अक्सर होते रहते हैं।
जब सरकार को एक पत्रकार मुरलीकांत की कहानी के जरिये नींद से जगाता है तब धूल हटाकर उसकी फाइल देखी जाती है और उसे पद्मश्री से सम्मानित किया जाता है।
कबीर खान ने मुरली के बचपन से लेकर तो वृद्धावस्था तक के सफर को दिखाया है। स्क्रिप्ट पूरी तरह से परफेक्ट तो नहीं है, लेकिन अपने मकसद में सफल हो जाती है।
फिल्म दर्शकों पर ग्रिप बनाने में थोड़ा समय लेती है, फिर इंटरवल तक जकड़ कर रखती है। इंटरवल के बाद फिर ग्राफ नीचे की ओर आता है, लेकिन थोड़े समय बाद पटरी पर फिल्म फिर आ जाती है और क्लाइमैक्स तक सरपट भागती है।
फिल्म की शुरुआत में ही दिखाया गया है कि रोमांच बढ़ाने के लिए कुछ काल्पनिक प्रसंग इसमें डाले गए हैं और यही नकली प्रसंग फिल्म में आप आसानी से पकड़ सकते हैं क्योंकि इन दृश्यों में निर्देशक की पकड़ ढीली हो गई है और बजाय फिल्म की बेहतरी के ये फिल्म का नुकसान करते हैं।
उदाहरण के लिए इंस्पेक्टर बने श्रेयस तलपदे और मुरलीकांत के थाने वाले सीन कमजोर हैं। बिना वजह की हंसाने की कोशिश साफ दिखाई देती है।
अस्पताल में नर्स और राजपाल यादव के बीच के दृश्य और एक पार्टी में मुरलीकांत का खाने के लिए कांटे-छुरी का इस्तेमाल वाले प्रसंग मनोरंजक नहीं बन पाए हैं।
दूसरी ओर कुछ अच्छे सीन भी हैं, खासकर हाईलाइट सीन वो है जिसमें मुरलीकांत के कोच टाइगर उसे दारा सिंह की कुश्ती दिखाने के लिए ले जाते हैं और उसे फिर से मोटिवेट करते हैं।
इस सीक्वेंस के संवाद सुनने लायक और विजय राज की एक्टिंग देखने लायक है। क्लाइमैक्स में पैरालम्पिक खेल में मुरली का हिस्सा लेना दर्शकों में जोश भर देता है।
निर्देशक कबीर खान ने चतुराई पूर्वक थोड़ी-थोड़ी देर में नए किरदारों को फिल्म में एंट्री देते रहते हैं जिससे फिल्म में ताजगी आती रहती है।
ये किरदार विजय राज, यशपाल शर्मा, राजपाल यादव, सोनाली कुलकर्णी जैसे कलाकरों ने निभाए हैं जो फिल्म की ताकत को बढ़ाते हैं और जहां फिल्म हिचकोले खाती है उसे संभाल लेते हैं।
निर्देशक के रूप में कबीर खान थोड़े दुविधाग्रस्त लगे। एक चैंपियन की कहानी को मेनस्ट्रीम ढांचे में फिट करने की उनकी कोशिश साफ नजर आती है।
उनका ट्रीटमेंट और बेहतर हो सकता था क्योंकि कबीर जैसे निर्देशक से उम्मीद ज्यादा रहती है। मुरलीकांत के कैरेक्टर में और गहराई तक जाया जा सकता था।
कार्तिक आर्यन के लिए यह रोल चैलेंजिंग और डिमांडिंग था। अपनी 'लवर बॉय' की इमेज को तोड़ कर उन्होंने कम्फर्ट लेवल को तोड़ा है।
एक दुबले-पतले गांव के लड़के से लेकर तो तगड़े बॉक्सर और फिर अस्पताल में बरसों तक इलाज कराने वाले इंसान के रोल के लिए उन्होंने कई तरह के शारीरिक चैलेंजेस का भी सामना किया।
उनकी एक्टिंग बेहतर तो रही, लेकिन इस रोल को वे और अच्छे से अदा कर सकते थे। वृद्ध के किरदार में भी वे जवानों की तरह बोलते नजर आए।
विजय राज सब पर भारी पड़े। मुरली के कड़क कोच के रूप में वे उनकी एक्टिंग शानदार रही। यशपाल शर्मा, सोनाली कुलकर्णी, भुवन अरोरा का काम ठीक रहा। श्रेयस तलपदे का किरदार और एक्टिंग कमजोर रही।
फिल्म में तीन गाने हैं जो फिल्म की थीम पर फिट बैठते हैं। इनके बोल दमदार हैं और प्रीतम की धुन भी सुनने लायक है। सुदीप चटर्जी की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। फिल्म को थोड़ा टाइट एडिट किया जा सकता था।