लड़कियों से जुड़े हर फैसले को अपने सम्मान से जोड़ने वाले ये बात कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते कि लड़कियां अपनी मर्जी से दूसरी जाति या धर्म के लड़के के साथ ब्याह कर ले। यदि कोई कर भी ले तो ऑनर किलिंग के नाम पर लड़की-लड़के की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी जाती है और हत्यारे इसे अपने सम्मान से जोड़ते हैं। ऐसे भूसा भरे दिमाग वाले लोगों की संख्या बहुत है। इनके अपने कानून और फैसले होते हैं। ऑनर किलिंग पर फिल्में बनी हैं, लेकिन शंकर रमन की फिल्म 'लव होस्टल' इस बुराई को अपने तरह से दिखाती है।
ज्योति दिलावर (सान्या मल्होत्रा) ने आशु खान (विक्रांत मैसी) से शादी कर ली है। दोनों को जान का खतरा है इसलिए उन्हें पुलिस कस्टडी में एक सेफ हाउस में रखा जाता है जिसे 'लव होस्टल' कहा जाता है। इसमें कई ऐसे कपल रहते हैं, जिनके जरिये इशारा दिया गया है कि समाज 'प्यार' से कितना डरता है।
ज्योति की दादी कमला (स्वरूप घोष) एमएलए है। वह कहती है कि ज्योति के लिए हमने दिवाली चुनी थी, लेकिन उसने ईद चुन ली। वह ज्योति को जिंदा चाहती है ताकि वह खुद उसके टुकड़े कर सके। ज्योति को पकड़ने की जिम्मेदारी वह डागर (बॉबी देओल) को सौंपती है जो किसी को भी गोली मारने के पहले एक सेकंड भी नहीं सोचता। वह बेहद क्रूर है और ऐसे प्रेमियों को फांसी पर लटका देता है या सिर में गोली मार देता है।
'प्यार' के खिलाफ लोगों के दिमाग में इतना जहर भरा हुआ है कि वे अपनों की ही हत्या करने में जरा नहीं हिचकते। लड़कियों की तो यह स्थिति है कि अपने से उम्र में कहीं बड़ी बहन को एक बच्चा मारता है क्योंकि वह लड़का है। साथ ही लड़का-लड़की के भेद को पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी बढ़ावा देती हैं।
इशारों-इशारों में कई बातें कही गई हैं। बच्चों पर इंटरनेट का क्या असर हो रहा है ये दो दृश्यों के माध्यम से दिखाया गया है। एक सीन में पूरे परिवार को बॉबी देओल गोली से उड़ा देता है, लेकिन बच्चा हेडफोन लगाए मोबाइल में खोया रहता है। एक अन्य सीन में एक छोटी लड़की खून देख बोलती है- वॉव ब्लड। इन दृश्यों के जरिये दिखाया गया है कि बच्चे वचुर्अल और रियल वर्ल्ड में फर्क ही नहीं कर पा रहे हैं। संवेदनाएं का मरना शुरू हो चुका है। अल्पसंख्यक वर्ग के लिए बहुसंख्यक वर्ग क्या सोचता है इसकी झलक भी फिल्म में कई दृश्यों के माध्यम से मिलती है।
लेखन की कमजोरी को निर्देशक शंकर रमन ने अपने कुशल निर्देशन से बहुत ही उम्दा तरीके से छिपाया है। उन्होंने फिल्म को इतना तेज दौड़ाया है कि दर्शक हांफ जाते हैं। हालांकि उन्होंने कुछ सीन विदेशी फिल्मों से प्रेरणा लेकर गढ़े हैं, लेकिन जिस क्रूर, अमावनीय और हिंसक तरीके से पूरा ड्रामा पेश किया है वो चौंका देता है। ऐसा नहीं है कि हिंसा का अतिरेक है क्योंकि इस तरह की घटनाएं समाज में घट रही हैं।
लेखन में थोड़ी गलतियां हैं। बॉबी देओल के किरदार के बारे में थोड़ी जानकारी और दी जानी चाहिए थी। साथ ही जिस तरह से बॉबी का किरदार खून की नदियां बहाता है वो रियल कम लगता है। पुलिस उसे क्यों नहीं पकड़ पाती यह सवाल बार-बार दर्शकों के दिमाग में कौंधता है। परफेक्ट निशाना लगाने वाला डागर, हमेशा ज्योति और आशु पर निशाना चूक जाता है।
सिनेमाटोग्राफर विवेक शाह का काम तारीफ के काबिल है। वे अपने काम के जरिये दृश्यों को और खौफनाक बनाते हैं। एडिटर्स ने फिल्म को दौड़ाया है।
विक्रांत मैसी और सान्या मल्होत्रा पूरी तरह से अपने कैरेक्टर में नजर आए हैं। गुस्सा, प्यार, डर सारे एक्सप्रेशन्स उन्होंने अच्छे से दिए हैं। बॉबी देओल का किरदार पाशविक है। वह गोली लगने पर जानवरों का इलाज करने वाले डॉक्टरों से इलाज कराता है और इसी सीन के जरिये निर्देशक ने उस किरदार के बारे में अपनी बात कह दी है। बॉबी का काम भी अच्छा है। सपोर्टिंग कास्ट ने बढ़-चढ़कर अपना काम किया है।
लव होस्टल में बात नई नहीं है, लेकिन जिस तरीके से कही और उठाई गई है वो इस फिल्म को देखने लायक बनाती है। 'ऑनर किलिंग' का फिल्म के जरिये कोई हल नहीं दिया गया है, लेकिन दर्शाया गया है कि स्थिति कितनी गंभीर हो गई है।