जातिवाद भारतीय समाज में बहुत गहरे तक धंसा हुआ है और तमाम आधुनिकतावाद के बावजूद जात-पात से हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। कई फिल्मकारों ने फिल्मों के जरिये इसके खिलाफ आवाज उठाई है और निर्देशक निखिल आडवाणी ने कमर्शियल फॉर्मेट में 'वेदा' के जरिये अपनी बात कही है।
असीम अरोड़ा द्वारा लिखी गई कहानी राजस्थान में सेट है। यह युवा लड़की वेदा (शरवरी) की कहानी है जिसे नीची जाति का होने के कारण खुल कर जीने का अवसर नहीं मिलता। उसके भाई के साथ एक हादसा होता है जिसके बाद आर्मी मैन अभिमन्यु कंवर (जॉन अब्राहम) की मदद से वह अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करती है।
'वेदा' की कहानी कोई नई बात या दृष्टिकोण सामने नहीं रखती है, लेकिन वेदा और उसके परिवार पर हुए अत्याचार दर्शकों को झकझोर देते हैं। चूंकि आगे क्या होने वाला है दर्शकों को पता रहता है इसलिए फिल्म लंबी और कहीं-कहीं उबाऊ लगती है।
फिल्म अपराध, भ्रष्टाचार और हिंसा से भरी दुनिया में सेट है, जहां नैतिकता की बात करना बेमानी है। जॉन का किरदार अपने अतीत से दु:खी है और लगातार संघर्ष करता है इसलिए फिल्म का स्वर उदासी भरा है।
फिल्म सिंगल ट्रैक पर चलती है और दर्शकों को राहत नहीं मिलती। यदि ड्रामे में जान होती तो दर्शक बर्दाश्त भी कर लेते, लेकिन स्क्रीन पर चल रही घटनाओं का दर्शकों पर ज्यादा असर नहीं होता इसलिए ये उदासी अखरती है।
निर्देशक निखिल आडवाणी ने फिल्म को बेहतर बनाने के लिए पूरा दम लगाया है, लेकिन स्क्रिप्ट का साथ नहीं मिलने के कारण एक स्तर के बाद वे भी फिल्म को ऊंचा नहीं उठा पाए।
जॉन अब्राहम की इस बात के लिए तारीफ की जा सकती है कि शरवरी का रोल सशक्त होने के बावजूद उन्होंने यह रोल स्वीकारा, लेकिन वे मिसकास्ट लगे।
इस रोल के लिए ऐसे अभिनेता की जरूरत थी जो जोश जगा सके, इमोशन पैदा कर सके, लेकिन जॉन अपने अभिनय से वे जादू नहीं जगा पाए। इस जटिल किरदार के साथ वे न्याय नहीं कर पाए।
शरवरी को तगड़ा रोल मिला है और उन्होंने अपनी एक्टिंग स्किल दिखाई है। हालांकि कुछ दृश्यों में उनका अभिनय फीका रहा है। अभिषेक बनर्जी, आशीष विद्यार्थी, क्षितिज चौहान का अभिनय शानदार रहा है।
कुमुद मिश्रा ने यह छोटा रोल क्यों किया, समझ से परे है। तमन्ना भाटिया का भी खास इस्तेमाल निर्देशक नहीं कर पाए। मौनी रॉय एक गाने में दिखाई दी।
अमाल मलिक, मनन भारद्वाज, युवा और राघव-अर्जुन के द्वारा बनाए गए गानों की अपेक्षा कार्तिक शाह का बैकग्राउंड म्यूजिक बेहतर है।
मलय प्रकाश की सिनेमाटोग्राफी शानदार है। फिल्म में म्यूटेड कलर पैलेट का इस्तेमाल किया गया है जो कहानी के उदास स्वर से पूरी तरह मेल खाता है। माहिर ज़वेरी की एडिटिंग और शॉर्प हो सकती थी।
कुल मिलाकर 'वेदा' एक औसत फिल्म के रूप में सामने आती है।