Ramcharitmanas: खोट तुलसीदास में या नेताओं की सोच में? इनके लिए सबसे बड़ी 'आस्था' है वोट

राम... जिनमें मन रम जाए या फिर जो मन में रम जाएं। मयार्दा पुरुषोत्तम राम, जिनके आचरण से सदियों से समाज सीख रहा है कि व्यक्ति का जीवन कैसा होना चाहिए, उसका आचरण कैसा होना चाहिए। राम के जीवन के बारे में महर्षि वाल्मीकि ने भी 'रामायण' में लिखा है, लेकिन इसकी भाषा संस्कृत होने के कारण यह ग्रंथ कुछ विद्वानों तक ही सीमित रहा है। लेकिन, राम के व्यक्तित्व और कृतित्व को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास की रचना 'रामचरितमानस' को ही जाता है। 
'रामकथा सुंदर कर तारी, संसय बिहग उड़ावनिहारी' अर्थात रामकथा इतनी सुंदर है कि वह संशय रूपी बिहग यानी पक्षी को उड़ा देती है। मन से संशय का भाव तिरोहित हो जाता है। रामचरितमानस की एक और चौपाई है- 'रामायण सुर तरु की छाया, भये दुख दूर निकट जो आया' अर्थात रामायण सुर तरु यानी देव वृक्ष की तरह है। इसके निकट आने से या कहें पढ़ने, समझने और जीवन में उतारने से व्यक्ति के दुख दूर हो जाते हैं। लेकिन, मानस की कुछ चौपाइयों का अर्थ अपने हिसाब से कर कुछ लोग इन दिनों समाज में संशय का 'विषवृक्ष' रोपने का काम कर रहे हैं। 
 
यह है विवाद की वजह : हमारे कुछ नेताओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी हरकत से देश और समाज पर क्या असर होगा, उन्हें सिर्फ अपनी राजनीति को चमकाने से मतलब होता है। ताजा मामला ‍उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य और बिहार के मंत्री चंद्रशेखर यादव का है, जिन्होंने अलग-अलग चौपाइयों के माध्यम से रामचरित मानस पर सवाल उठाए हैं। इस ग्रंथ को उन्होंने दलित और नारी विरोधी करार दिया है। 'सुंदरकांड' की चौपाई 'ढोल गंवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी' पर तो लंबे अरसे से विवाद चला आ रहा है। दरअसल, इसी चौपाई के आधार पर तुलसी को दलित और नारी विरोधी करार दिया जाता है। 
 
बिहार के मंत्री को तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद ने समझा दिया और वे बाद में चुप्पी भी साध गए, लेकिन समाजवादी पार्टी के विधान परिषद सदस्य स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व में भाजपा सरकार के मंत्री) लगातार इस मामले में बयानबाजी कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों में जाति, वर्ण और वर्ग के आधार पर समाज के किसी वर्ग का अपमान हुआ है तो वह निश्चित रूप से धर्म नहीं अधर्म है।
 
मौर्य ने मांग की थी कि पुस्तक के ऐसे हिस्से पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए जो किसी जाति का अपमान करते हैं। उनका कहना है कि मानस की कुछ पंक्तियों में तेली और कुम्हार जैसी जातियों के नामों का उल्लेख है। सपा विधायक पल्लवी पटेल भी कह चुकी हैं कि वे रामचरित मानस को नहीं मानती। इस बीच, यूपी में ही कुछ लोगों ने मानस की प्रतियों को भी जलाया। वहीं, भाजपा ने पलटवार करते हुए कहा कि विधानसभा चुनाव में अपनी पराजय से बौखलाए मौर्य चर्चा में बने रहने के लिए अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं।
 
मौर्य की नीयत पर सवाल : वैसे, स्वामी प्रसाद मौर्य की नीयत पर सवाल उठाया जा सकता है। मौर्य 1996 से 2016 तक मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी में रहे, जिसकी विचारधारा ही दलितों पर आधारित है। लेकिन, उस दौरान कभी भी उन्हें रामचरितमानस में खराबी नहीं दिखी। करीब 6 साल वे भाजपा में रहे और योगी मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे। तब भी तुलसी में उन्हें कोई खोट नजर नहीं आई थी।
 
स्वामी ने 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा छोड़ सपा का दामन थामा और विधानसभा चुनाव भी हार गए। दरअसल, यहीं से उन्हें अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए रामचरितमानस का सहारा लेना पड़ा। हालांकि यह अलग बात है कि सपा में ही स्वामी को इसके लिए विरोध झेलना पड़ रहा है।
  
इन चौपाइयों का सीधा-सीधा अर्थ देखेंगे तो निश्चित ही इसका अर्थ आपत्तिजनक हो सकता है। कई अन्य चौपाइयां भी हैं, जिनके अलग अर्थ निकाले जा सकते हैं। हालांकि विद्वानों ने इन चौपाइयों के अर्थ भी अलग-अलग तरीके से किए हैं। विद्वानों का मानना है कि इन्हीं चौपाइयों को सदंर्भ के साथ देखा जाए, तो शायद विवाद की स्थिति ही नहीं बन पाएगी। क्योंकि ये सभी चौपाइयां मानस महाकाव्य में अलग-अलग संदर्भ में और अलग-अलग पात्रों के माध्यम से कही गई हैं। ऐसे में किसी एक पंक्ति को उठाकर उसे दलित विरोधी करार देना कहीं से भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। 
 
सिर्फ समाज को बांटने की कोशिश : डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या के पूर्व कुलपति आचार्य मनोज दीक्षित ने इस मुद्दे पर वेबदुनिया को बताया कि कतिपय राजनेताओं द्वारा की गई टिप्पणियों पर यह कहना गलत होगा कि इन नेताओं ने इन्हें गलत समझा है। ये नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए सिर्फ इसका उपयोग कर समाज को बांटना चाहते हैं। उन्हें अज्ञानी कहना अनुचित होगा क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि तुलसी ने क्या कहा है तथा कब और किस संदर्भ में कहा है।
 
आचार्य दीक्षित कहते हैं कि मैंने स्वयं इसका शोध किया है कि अयोध्या में ही 62 जातियों के राम के पंचायती मंदिर हैं। वर्तमान में संभवत: कई उपलब्ध नहीं भी होंगे। इन सभी जातियों के आराध्य राम ही हैं। पुजारी भी उन्हीं जातियों के हैं। दरअसल, कुछ नेता इन महाकाव्यों और महाग्रंथों का उपयोग कर कुत्सित राजनीति कर रहे हैं। 
क्या कबीर भी नारी विरोधी हैं : कबीर के दोहे ‘नारी की झांई पड़त, अंधा होत भुजंग कबिरा तिन की कौन गति, जो नित नारी संग’ का उल्लेख करते हुए दीक्षित कहते हैं कि समाज में कबीर की स्वीकार्यता असंदिग्ध है, लेकिन उनके इस दोहे का सीधा अर्थ निकालकर उन्हें घोर नारी विरोधी ठहराया जा सकता है। हमें किसी भी रचनाकाल की तात्कालिक परिस्थितियों और संदर्भ के साथ देखना चाहिए। संदर्भ हटाकर देखेंगे तो उसका निश्चित ही गलत अर्थ निकलेगा। विवाद खड़े करने वाले लोग मूर्ख भी नहीं हैं, विद्वान भी नहीं हैं, यह शैतान की सोच रखने वाले लोग हैं। दरअसल, इस तरह के नेताओं को न तो तुलसी से वास्ता है और न ही कबीर से, वे अपने फायदे के लिए ही इस तरह के मुद्दों को तूल देते हैं। 
कुछ दोहों के आधार पर कबीर को आसानी से नारी विरोधी ठहराया जा सकता है, लेकिन हमें यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने अपनी रचनाएं किस काल और किन सामाजिक परिस्थितियों में रची हैं। यदि आज के दौर में कबीर होते तो 'ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, का बहरा भया खुदाय' दोहे के लिए उनके खिलाफ सर तन से जुदा का फतवा जारी हो जाता। 
 
एक अन्य दोहे में कबीर ने नारी को पूजनीय और आदरणीय कहा है। वे कहते हैं- 'नारी निंदा न करो, नारी रतन की खान, नारी से नर होत हैं, ध्रुव प्रह्लाद समान' अर्थात उन्होंने नारी की निंदा करने से बचने की सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि नारी से ध्रुव और प्रह्लाद जैसे भक्त जन्म लेते हैं। 
 
दरअसल, कवि कई बार अपनी बात कहने के लिए सामाजिक प्रतीकों का सहारा लेता है। प्रतीकों के प्रयोग को किसी वर्ग विशेष की निंदा से नहीं देखा जाना चाहिए। फिल्मों में आमतौर पर पात्रों के माध्यम से इस तरह का चित्रण किया जाता है, विवाद भी उत्पन्न होता है, फिर भी फिल्में चलती हैं। शाहरुख की हालिया रिलीज फिल्म पठान इसका सबसे ताजा उदाहरण हो सकता है।  
 
सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है सुंदरकांड : रामचरित मानस का सुंदरकांड सबसे अधिक पढ़ा जाता है। हिन्दू समुदाय के बहुत ही कम घर होंगे, जहां कभी सुंदरकांड नहीं पढ़ा-सुना गया होगा। 'ढोल गंवार...'  वाली सबसे विवादित चौपाई भी इसी कांड में है। दरअसल, इस चौपाई में राम और समुद्र का संवाद है, जिसमें वह खुद को जड़ कहता है और उपमा के लिए इस तरह के शब्दों का उपयोग करता है। 
 
संस्कार देता है मानस : तपस्वी छावनी के स्वामी परमहंस वेबदुनिया से बातचीत में कहते हैं कि मौर्य जो अपनी मां को मां कहते हैं, बेटी को बेटी कहते हैं, यह रामचरितमानस के कारण ही संभव हुआ है। अर्थ समझना तो दूर की बात है, मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि वे एक चौपाई को शुद्ध बोलकर दिखाएं। यदि जहर उगलेंगे तो परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए। वहीं, अयोध्या के ही महंत सुरेश दास कहते हैं कि रामायण से बढ़िया कोई ग्रंथ नहीं है। जो रामायण के बारे में नहीं जानते, वे ही इसी प्रकार के तर्क देते हैं।
  
मध्यप्रदेश संस्कृत बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष और महर्षि पाणिनी संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. मिथिला प्रसाद त्रिपाठी वेबदुनिया से बातचीत में कहते हैं कि रामचरित मानस ने सदैव जोड़ने का काम किया है। मानस नहीं होता तो राम शायद राम नहीं होते। राम के साथ तो समाज के सभी वंचित और शोषित वर्ग के व्यक्ति थे। ऐसे में मानस को कैसे दलित और नारी विरोधी कहा जा सकता है। जिसने मानस को पढ़ा और समझा है, वही उसके सही अर्थ को समझ सकता है। 
 
...तो सूरदास को भी नहीं छोड़ते : संभवत: महाकवि सूरदास की रचना पर भी किसी 'स्वयंभू पर्यावरणविद नेता का विवेक नहीं जागा, अन्यथा वे उन्हें भी पर्यावरण विरोधी घोषित कर देते। दरअसल, सूरदास ने कृष्ण के मथुरा जाने के बाद गोपियों की विरह वेदना को बड़े ही सुंदर शब्दों में प्रस्तुत किया है। वे अपने पद में कहते हैं- मधुबन तुम क्यौं रहत हरे, बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे... इसमें गोपियां श्याम सुंदर के वियोग में मधुवन के जलने की बात कर रही हैं। ऐसे में सूरदास की इन पंक्तियों पर भी आपत्ति उठाई जा सकती है, बयानबाजी की जा सकती है। दरअसल, कवि ने गोपियों की वेदना को व्यक्त करने के लिए उपमा का सहारा लिया है।   
 
कब लिखा गया था रामचरित मानस : तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस का भारतीय संस्कृति में अहम स्थान है। हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगों के घरों में आमतौर पर रामचरित मानस बड़े या छोटे (गुटका) रूप में मिल ही जाता है। तुलसीदास द्वारा 16वीं सदी में रामचरितमानस की अवधी भाषा में रचना की गई थी। इसकी रचना में तुलसी को 2 वर्ष 7 माह 26 दिन का समय लगा था। इसे उन्होंने 1576 में राम-सीमा विवाह के दिन (संवत 1633, मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष) में पूर्ण किया था।
 
मानस महाकाव्य है, जिसमें श्रीराम के पूरे जीवन का वर्णन है। गुसाईं जी ने मानस चौपाइयों, दोहों, सोरठों तथा छंदों के माध्यम से सुंदर वर्णन किया है। मानस 7 खंडों में विभाजित है, जिन्हें कांड कहा जाता है। ये कांड हैं- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तरकांड। मानस के सुंदरकांड का तो बहुत से घरों में नियमित या प्रति मंगलवार, शनिवार को पढ़ा और सुना जाता है। जिस समय तुलसी ने रामचरित मानस की रचना की थी, उस समय मुगलों का राज्य था। उस समय की सामाजिक परिस्थितियां वर्तमान समय से बिलकुल भिन्न थीं। तुलसी की रामचरितमानस का आधार वाल्मीकिकृत रामायण है। 
 

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