अशोक वाजपेयी फ्रांस के ला शात्रूज में आवास रचनाकार के रूप में 24 अक्टूबर से 10 नवंबर तक रहे। यहाँ रहकर उन्होंने कुछ गद्य और कुछ कविताएँ लिखीं। यहाँ उनका एक गद्य दिया जा रहा है जो उनके वहाँ लिखे गए और समास पत्रिका में छपे गद्य से चुना गया है। इसी सुंदर गद्य पर मेरी पेंटिंग भी प्रस्तुत है।
अशोक वाजपेयी फ्रांस के ला शात्रूज में आवास रचनाकार के रूप में 24 अक्टूबर से 10 नवंबर तक रहे। यहाँ रहकर उन्होंने कुछ गद्य और कुछ कविताएँ लिखीं। यहाँ उनका एक गद्य दिया जा रहा है ...
शात्रूज के जिस एक क्रमांक चैम्बर में मैं हूँ, वह चौदहवीं सदी में बना था और सैकड़ों बरस उसमें ईसाई संत रहते आए थे। फिर फ्रेंच क्रांति हुई और वे खदेड़ दिए गए। हरेक चैम्बर के पीछे एक आँगन है जिस पर हरी घास उगी हुई है। सामने एक ऊँचा पुरातन स्मारक है जिस पर कबूतरों का डेरा है। उसके ऊपर आकाश है।
घास यहाँ हमेशा रही होगी। यह पियराती होगी, सूखी पड़ जाती होगी या फिर उग आती होगी। घास यहाँ इस मठ में वैसे ही है जैसे कि समय है-अपनी बेहद मद्धिम लय में बीतता हुआ और फिर भी हमेशा घास की तरह।
घास बहुत नीचे होती है, कई बार कुछ और नहीं होता सिर्फ घास होती है। जैसे आसपास कोई पदार्थ या व्यक्ति न हो सिर्फ शब्द हों किसी के द्वारा बोले -पुकारे शब्द नहीं, अपने ही अंदर एकत्र घुमड़ते या सहमे हुए शब्द।
घास पर धूप गिरती है, अँधेरा गिरता है, ओस पड़ती है। हवा घास को सहलाते हुए गुजरती रहती है। जब किसी को खबर नहीं होती, घास आकाश की तरफ देखती है। वह नीचे भले है पर वह बात करती है आकाशगंगा से जो कि आकाश के आँगन में खिली घास है।
घास आकाशगंगा से अपने हरे-भरे मन की बात करती है और आकाशगंगा घास से अपनी चमकती आपबीती कहती है। कविता को कभी-कभी यह सम्वाद सुनाई देता है और याद रहता है। उसी के माध्यम से कभी-कभी हम इस गुपचुप बातचीत के कुछ टुकड़े सुन पाते हैं। कविता हमें ऐसे कई सम्वादों का पता देती है। कविता न होती तो हम सोच भी नहीं सकते थे कि घास आकाशगंगा को आवाज देती है।