समकालीन हिंदी कविता के अद्वितीय कवि चंद्रकांत देवताले सात नवंबर को ७२ साल के हो गए। यह स्वाभाविक था कि अपने संगत कॉलम के लिए मैं उनकी कविता का चयन करूँ। देवतालेजी की कविता में दो मूल तत्व बाआसानी से देखे-महूसस किए जा सकते हैं। ये दो तत्व हैं पानी और आग। उनकी कविताओं में ये दोनों तरह-तरह से, अनेक रूपकों के जरिये आते हैं और अपने समय के मर्म को अभिव्यक्त करते हैं। इसमें कवि की उस बैचेनी को, प्रेम और गुस्से को बाआसानी देखा जा सकता है जो वह अपने लोगों के बीच जीते-मरते उनके लिए व्यक्त करता है।
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यह कवि अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने की चुनौतियों से रूबरू होकर रचता है। ऐसा करते हुए उसकी अचूक दष्टि में शोषित-वंचित नागरिक कभी ओझल नहीं होते। इसलिए उनके बारे में यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि वे अपने लोगों के सुख-दुःख, संघर्ष और स्वप्न को इतने कलात्मक कौशल से कहता है कि वह हम तक अपनी पूरी मारकता से संप्रेषित होता है। कहने की जरूरत नहीं कि वे अथाह करूणा और नैतिक साहस के साथ अपने समय की इबारतें लिखने वाले कवि हैं जिनमें सुख और दुःख, आशा और निराशा, साहस और थकान, प्रेम और मृत्यु, पाना और खोना एक साथ अभिव्यक्त होते हैं। जाहिर है वे अपनी कवि आँख से ऐसे यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं जो इकहरा नहीं है और लगातार बदल रहा है। इसलिए उनकी कविताओं में विरूद्धों का सामंजस्य देखा जा सकता है जो संश्लिष्ट यथार्थ है।
यही जीवन का असल मर्म है कि वह किसी एक रंग से नहीं बना। इसमें जीवन की आग है तो पानी भी है। धूप है तो छाँव भी। और कुछ पाने की मानवीय इच्छा है तो खो देने की पीड़ा भी।
जहाँ सूर्योदय होगा उनकी एक ऐसी ही बेहतरीन कविता है। इसमें भी आग और पानी है। यहाँ पानी का पेड़ है और आग के परिंदे हैं। कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है- पानी के पेड़ पर जब बसेरा करेंगे आग के परिंदे उनकी चहचहाहट के अनंत में थोड़ी-सी जगह होगी जहाँ मैं मरूँगा पानी के पेड़ और आग के परिंदे से बने इस जीवन में कवि की यह आकांक्षा हो सकती है कि वह जब मरेगा तब आग के परिंदों की चहचहाहट के अनंत में उसके लिए थोड़ी सी जगह होगी। एक जगह देवताले जी ने कहीं लिखा भी है कि वह कैसे भी रहे, कहीं भी रहे आग और पानी ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। यहाँ भी आग और पानी है। और उनके जीवन में ये दोनों तत्व इतने गहरे शामिल हैं कि कवि को लगता है कि वह जहाँ मरेगा वहाँ भी आग का पेड़ उगेगा जहाँ पानी के परिंदे बसेरा करेंगे। मैं मरूँगा जहाँ वहाँ उगेगा पेड़ आग का उस पर बसेरा करेंगे पानी के परिंदे
पानी के पेड़ और आग के परिंदे से बने इस जीवन में कवि की यह आकांक्षा हो सकती है कि वह जब मरेगा तब आग के परिंदों की चहचहाहट के अनंत में उसके लिए थोड़ी सी जगह होगी।
परिंदों की प्यास के आसमान में जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा वहाँ छायाविहीन एक सफेद काया मेरा पता पूछते मिलेगी कहने की जरूरत नहीं कि उनकी यह कविता एक कॉन्ट्रास्ट से बनी है। यही जीवन का असल मर्म है कि वह किसी एक रंग से नहीं बना। इसमें जीवन की आग है तो पानी भी है। धूप है तो छाँव भी। और कुछ पाने की मानवीय इच्छा है तो खो देने की पीड़ा भी। इन्हीं चीजों से मिलकर वह जीवन बना है जहाँ परिंदों की प्यास का आसमान है जिसमें थोड़ा सा सूर्योदय होगा।