एक कवि की संवेदना किस तरह से एक दृश्य में थरथराती है या एक दृश्य किस तरह से कवि की संवेदना में थरथराता है, यह देखना दिलचस्प हो सकता है। इसकी मिसालें गुलज़ार में खूब मिलती हैं। उनकी कविताई में दृश्य हैं, दृश्य में कविता है। कई कवि हैं जो दृश्य में सोचते हैं। बिम्ब में सोचते हैं, प्रतीक में सोचते हैं।
भीगे मौसम में, भीगे मौसम को निहारते हुए, लगभग अकेले उस मूसलसल चुपचाप बरसते पानी में, ज़हन की किसी और ही सतह पर किसी का तसव्वुर बरस रहा है। क्या अदा है गुलज़ार साहब की। किसी को याद करने का इतना सादा लेकिन गहरा अंदाज।
समकालीन हिंदी कविता के एक खास कवि मंगलेश डबराल ने अपने एक इंटरव्यू में कहीं कहा है कि अनेक ऐसे कवि हैं जो सिर्फ दृश्य के भीतर रहते हैं, उनसे बाहर ही नहीं आते, दृश्य के माध्यम से ही अपना वक्तव्य देते हैं।
कहने दीजिए गुलज़ार ऐसे ही कवि हैं जो अपने को किसी खास दृश्य में या किसी खास दृश्य से अपने को अभिव्यक्त करते हैं। लगता है उनकी कविता किसी दृश्य में ही साँस लेती है। गुलज़ार की साँसें कई बार किसी दृश्य से निकलती मालूम पड़ती हैं। भीगी हुई, रुक-रुक कर आती हुई। आपको भी रुक-रुक कर भिगोती हुई...
मिसाल लेना चाहें तो उनकी नज़्म झड़ी देखी जा सकती है। देखी इसलिए जा सकती है कि सचमुच इसमें एक कवि का देखना छिपा है। यह बारिश में देखना है। नज़्म इस पंक्ति से शुरू होती है-
बंद शीशों के परे देख, दरीचों के उधर
इस पहली पंक्ति में तीन-चार बातें छिपी हैं। पहली यह कि इस पंक्ति से शायर की पोजिशन पता लगती है यानी शायर जो है वह किसी चहारदीवारी में बैठा है, बाहर के मौसम से भीगता हआ।
बंद शीशों के परे देख, दरीचों के उधर
सब्ज़ पेड़ों पे, घनी शाखों पे, फूलों पे वहाँ
कैसे चुपचाप बरसता है मूसलसल पानी
कितनी आवाज़ें हैं, ये लोग हैं, बातें हैं मगर
ज़हन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा..
दूसरी बात यह कि वह बाहर के दृश्य में खोया हुआ किसी को संबोधित कर रहा है। यानी यहाँ किसी दूसरे की उपस्थिति भी है। दूसरे की यह उपस्थिति ठीक वहाँ भी हो सकती है जहाँ यह शायर है और दूसरे की यह उपस्थिति उसके ज़हन में भी हो सकती है।
तीसरी बात यह कि किसी से कहा जा रहा है कि बाहर भी देख और वह देख जो मैं देख रहा हूँ। बंद शीशों के परे, दरीचों के उधर। उधर सब्ज पेड़ हैं, घनी शाखें और फूल हैं। और फिर मूसलसल पानी बरसने की बात है। यह पानी चुपचाप बरस रहा है। ये तीन पंक्तियाँ लगभग सिनेमेटिक हैं।
जैसे कोई फिल्मकार एक सीन क्रिएट कर रहा है। क्या हम गुलज़ार की शायरी के बारे में यह कह सकते हैं कि उनकी शायरी को कई बार यह अंदाज उनके फिल्मकार होने की वजह से हासिल है? शायद।
बाद की पंक्तियाँ आपको आँखों की संवेदनाओं को जगाने का काम अपनी पूरी कलात्मकता के साथ करती हैं। जैसे कैमरा किसी खास दृश्य पर फोकस किया जा रहा है, फिर धीरे-धीरे आगे खसकता हुआ। बताता हुआ कि देखो कुदरत का यह खामोश नजारा। इसे करीब से महसूस करो।
सब्ज़ पेड़ों पे, घनी शाखों पे, फूलों पे वहाँ कैसे चुपचाप बरसता है मूसलसल पानी
ये पंक्तियाँ जाहिर एक दृश्य है।
अब इस दृश्य का जादू टूटता है और अगली पंक्ति में चहारदीवारी में अपने आसपास के माहौल को बांके हुए बिना कहने का अंदाज है। यहाँ से एक शायर का ख़्याल किसी रिमझिम की तरह बरसता आप महसूस कर सकते हैं। इस ख़्याल में होते हुए शायर कहीं और है। इसके बावजूद कि कितनी आवाजें हैं, लोग हैं और बातें हैं।
और बस आखिऱी की दो पंक्तियों में गुलजार का वही जादू काम करने लगता है। एक दृश्य में अपनी खास कल्पनाशीलता से वे ऐसा रंग भरते हैं कि तस्वीर किसी और ही रूप में दिखने लगती है। गौर कीजिए-
ज़हन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा
भीगे मौसम में, भीगे मौसम को निहारते हुए, लगभग अकेले उस मूसलसल चुपचाप बरसते पानी में, ज़हन की किसी और ही सतह पर किसी का तसव्वुर बरस रहा है। क्या अदा है गुलज़ार साहब की। किसी को याद करने का इतना सादा लेकिन गहरा अंदाज। बेआवाज, मूसलसल। कोई विलम्बित ख़्याल।