विनोदकुमार शुक्ल हिंदी के विरल कवि हैं। विरल इसलिए कि हिंदी में शब्दों के साथ मौलिक बर्ताव करने वाले कवि तो बहुतेरे हैं लेकिन दृश्य के साथ मौलिक बर्ताव करने वाले वे शायद अकेले हैं।
उनकी कविता में संवेदना का विस्तार चकित करता है। उनकी कविता का यह विस्तार इतना है कि उसमें समूची पृथ्वी शामिल है। समूचा ब्रह्मांड शामिल है। संगत के लिए इस बार जो कविता चुनी गई है वह कविता अपनी कल्पनाशीलता और संवेदना से कितनी मार्मिक बन पड़ी है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
यह कविता मनुष्य के नहीं, एक पहाड़ के अकेलेपन को महसूस करने से संभव हुई है। इस कविता का शीर्षक है- जो शाश्वत प्रकृति है, उसमें पहाड़ है। यह कविता इन पंक्तियों से शुरू होती है-
जो शाश्वत प्रकृति है उसमें पहाड़ है उनकी चट्टानों, पत्थरों में बार-बार उगते पेड़ और वनस्पतियाँ हैं।
यह एक दृश्यभर है। एक शाश्वत प्रकृति में पहाड़ और उसमें उगते पेड़ वनस्पतियाँ हैं। इसके बाद कवि की वह आवाज है जो हमें बिना चौंकाए एक सूचना देती है कि-
वहाँ मैं जा रहा हूँ
लेकिन यह तब सूचना सिर्फ सूचना नहीं रह जाती जब पाठक को यह मालूम पड़ता है कि वह किसी पर्यटन के लिए नहीं बल्कि उस हिमांचल एकांत में जा रहा हैं जहाँ पहाड़ मनुष्य की राह देख रहे हैं। यह प्रकृति को और उसमें पहाड़ को जिंदा कर देने का मामला है।
यह कविता पहाड़ के बाहरी सौंदर्य को नहीं बल्कि उसके मन को रचने की कोशिश करती है और कितने सादा अंदाज से कामयाब होती है। हालाँकि कामयाब होना उसका अभीष्ट नहीं है। यहीं से यह कविता अपनी मार्मिकता हासिल करती है। आगे की पंक्तियाँ हैं-
वहाँ ऐसा एकांत हिमांचल है कि कोई पहले गया न हो वे मनुष्य की राह देख रहे हैं।
कवि जा तो रहा है लेकिन इसलिए कि वह महसूस करता है कि वहाँ उसकी एक जगह है। और वह यह भी बताना नहीं भूलता कि वह जा रहा है लेकिन उनकी तरह अटल स्थिर नहीं होना चाहता।
वे पर्वत, श्रेणियों में उसी तरह स्थिर हैं जैसे चित्र खिंचवाने के लिए एक समूह होता है बाहर उनके बीच एक मेरी जगह है वहाँ मैं स्थिर हो जाऊँगा क्या?
अब देखिए कि आगे कि पंक्तियों में विनोदकुमार शुक्ल अपनी अचूक और संवेदनशील दृष्टि से कितनी मार्मिक कविता को संभव कर दिखाते हैं। वे पहाड़ों के एकांत से व्यथित हैं और इसीलिए वे इनके पास उनके जैसे स्थिर होने नहीं बल्कि एक खास मकसद से जा रहे हैं। वह मकसद क्या है? इन पंक्तियों पर गौर करें-
मैं स्थिर नहीं होऊँगा घूमूँगा, दौडूँगा, हँसूगाँ , चिल्लाऊँगा, रोऊँगा ....
और वे यह सब इसलिए कर रहे हैं क्योंकि-
इस एकांत में पहाड़ों को यह याद न आए कि एक समय था जब पृथ्वी में मनुष्य नहीं थे।
कितनी सुंदर और मार्मिक बात है। वे इस कोशिश में हैं कि पहाड़ों को वह समय याद न आए जब मनुष्य नहीं थे इसलिए वे घूमना, दौड़ना, हँसना, चिल्लाना और रोना चाहते हैं, ताकि पहाड़ों को लगे कि वे मनुष्य के साथ हैं। यह एक मनुष्य का पहाड़ों के साथ होना है। प्रकृति के साथ होना है। उनके अकेलेपन को दूर कर उनके साथ होना है। और अंत में वे लिखते हैं कि-
शायद उन्हें वह समय याद आ रहा हो जब पृथ्वी में मनुष्य नहीं थे।
वस्तुतः यह पूरी कविता पहाड़ों को यह याद दिलाने की मानवीय कोशिश है कि एक समय था जब उनके साथ मनुष्य थे और हैं। और कविता यही संभव करती है कि वे हमेशा उनके साथ रहेंगे। उनके एकांत में जाकर रोएँगे और हँसेंगे। दौड़ेंगे और चिल्लाएँगे।