पर्यावरण के प्रदूषण से जम्मू कश्मीर भी अछूता नहीं

सुरेश एस डुग्गर

रविवार, 13 अगस्त 2023 (14:26 IST)
अंग्रेजी फिल्म ‘ए डे आफटर टूमारो’ देखने वालों को इस बात का अहसास जरूर होता होगा कि अगर पृथ्वी के पर्यावण को प्रदूषण से नहीं बचाया गया तो पृथ्वी के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा। नतीजतन पृथ्वी के प्रदूषित होते वातावरण की चिंता में कश्मीर भी इस प्रदूषण से अछूता नहीं है। जहां पर्यटकों के साथ साथ अन्य पक्ष भी इसे प्रदूषित करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।
 
जम्मू कश्मीर में तो हाल-ए-प्रदूषण यह है कि पर्यटक जहां वादी-ए-कश्मीर, विश्व प्रसिद्ध डल व मानसर झीलों, अमरनाथ व वैष्णो देवी के यात्रा मार्गों में पड़ने वाले पहाड़ों को प्रदूषित करने में जुटे हैं वहीं स्थाई रूप से जम्मू कश्मीर के पहाड़ों पर टिकने वाली भारतीय फौज भी कम दोषी नहीं है इस प्रदूषण के लिए।
 
चौंकाने वाली बात तो इस तेजी से फैलते प्रदूषण के प्रति यह है कि अगर आने वाले दिनों में विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन ग्लेशियर के तेजी से पिघलने और वैष्णो देवी की गुफा के ढहने की खबर मिले तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
 
जब पर्यावरण को प्रदूषित करने की बात आती है तो जम्मू कश्मीर को एक अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। ऐसा इसालिए क्योंकि जम्मू कश्मीर के पहाड़ों को दूषित करने में प्रतिवर्ष आने वाले लाखों लोग तो शामिल हैं ही वे सैनिक भी हैं जो देश की रक्षा की खातिर करगिल से लेकर सियाचिन हिमखंड जैसे युद्धस्थल पर तैनात हैं और प्रतिवर्ष टनों के हिसाब से वे वहां कचरा फैला रहे हैं।
 
जब वर्ष 1984 में वैष्णो देवी के विश्व प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर आने वालों की संख्या मात्र कुछ हजार थी तो पर्यावरण के दूषित होने के प्रति गंभीरता से सोचा नहीं गया था। लेकिन आज जबकि प्रतिवर्ष आने वालों का आंकड़ा एक करोड़ को छूने लगा है, ऐसे में पर्यावरण को खराब करने में अगर इन श्रद्धालु रूपी पर्यटकों का दोष है ही साथ ही तीर्थस्थान की देखभाल करने वाला स्थापना बोर्ड भी बराबर का भागीदार है। उसका दोष मात्र यह है कि आने वालों के लिए सुख-सुविधाओं की पूर्ति के लिए उसने पहाड़ों को बारूद से उड़ा कर कंक्रीट के जंगल तैयार कर दिए तो रास्ते बनाने की खातिर वनों का विनाश कर दिया।
 
इसी कारण यह एक कड़वी सच्चाई के साथ स्वीकार करना पड़ेगा कि वैष्णो देवी तीर्थस्थल पर आने वालों के लिए यह खबर बुरी हो सकती है कि अगर किसी दिन उन्हें यह समाचार मिले कि जिस गुफा के दर्शनार्थ वे आते हैं वह ढह गई है तो कोई अचम्भा उन्हें नहीं होना चाहिए।
 
ऐसी चेतावनी किसी ओर के द्वारा नहीं बल्कि भू-वैज्ञानिकों द्वारा दी जाती रही है जिनका कहना है कि अगर उन त्रिकुटा पहाड़ियों पर, जहां यह गुफा स्थित है, प्रदूषण रूपी विस्फोटों का प्रयोग निर्माण कार्यों के लिए इसी प्रकार होता रहा तो एक दिन गुफा ढह जाएगी। जिस प्रकृति के साथ करीब 39 सालों से खिलवाड़ हो रहा था उसने कई बार अपना रंग दिखाया है।
 
पिछले कई सालों के भीतर इस तीर्थस्थल के यात्रा मार्ग में होने वाली भूस्खलन की कई घटनाएं एक प्रकार से चेतावनी हैं उन लोगों के लिए जो त्रिकुटा पर्वतों पर प्रकृति से खिलवाड़ करने में जुटे हुए हैं। यह चेतावनी कितनी है इसी से स्पष्ट है कि भवन, अर्द्धकुंवारी, हात्थी मत्था, सांझी छत और बाणगंगा के रास्ते में होने वाली भूस्खलन की कई घटनाएं अभी तक बीसियों श्रद्धालुओं को मौत की नींद सुला चुकी हैं। जबकि जिन स्थानों पर भूस्खलन हुए हैं और चट्टानें खिसकीं और कई लोग दबकर मर गए उनके पास निर्माण कार्य चल रहे थे।
 
प्रदूषण और भूस्खलन की इन घटनाओं के बारे में भू-वैज्ञानिक अपने स्तर पर बोर्ड के अधिकारियों को सचेत कर चुके थे कि गुफा के आसपास के इलाके में पिछले कई सालों से जिस तेजी से निर्माण कार्य हुए हैं उससे पहाड़ कमजोर हुए हैं। इन वैज्ञानिकों की यह सलाह थी कि बोर्ड को सावधानी के तौर पर भू-विशेषज्ञों व अन्य तकनीकी लोगों से पहाड़ों-चट्टानों की जांच करवा कर जरूरी कदम उठाने चाहिए। इसे भूला नहीं जा सकता कि हिमालय पर्वत श्रृखंला की शिवालिक श्रृंखला कच्ची मिट्टी (लूज राक) से निर्मित है। पर बोर्ड के अधिकारियों ने कथित तौर पर इस चेतावनी पर खास रूचि नहीं दिखाई।
 
गौरतलब है कि बोर्ड की जिम्मेवारी यात्रा प्रबंधों के साथ-साथ यह भी है कि गुफा के आसपास के वनों व प्राकृतिक खूबसूरती को आंच न आए। आसपास के पहाड़ों और वनों पर राज्य वन विभाग का कोई नियंत्रण नहीं है। वनों को सुरक्षित रखना बोर्ड की ही जिम्मेवारी है।
 
वर्ष 1986 में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने बोर्ड का गठन किया था तो वनों व आसपास की त्रिकुटा पहाड़ियों का नियंत्रण बोर्ड को देने का एक मात्र कारण यह भी था कि विभिन्न एजेंसियों के रहने से गुफा के आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए बोर्ड को ही सारा नियंत्रण सौंपा गया। परंतु इस अधिकार का बोर्ड ने गलत मतलब निकाला और जब चाहा वनों के साथ-साथ त्रिकुटा पहाड़ियों को नुकसान पहुंचाया।
 
अगर ऐसा न होता तो गुफा के आसपास का इलाका जो कुछ साल पहले संकरा था वह आज मैदान जैसा कैसे बन गया। अब जबकि कश्मीर में पर्यटन का एक बार फिर विस्तार होने लगा है पर्यावरणविदों की चिंता पर्यटकों के कारण बढ़ता प्रदूषण भी है। यही प्रदूषण आज अगर विश्व प्रसिद्ध डल झील के सिकुड़ने का मुख्य कारण है तो वार्षिक अमरनाथ यात्रा के दौरान प्राकृतिक तौर पर बनने वाले हिमलिंग के जल्द पिघलने के लिए भी दोषी है। मानसर झील में प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में होने वाली मछलियों की मौत को भी अब उसी प्रदूषण के साथ जोड़ा जाने लगा है जो वहां आने वाले हजारों पर्यटकों द्वारा फैलाया जाता है।
 
असल में पहाड़ों तथा पर्यटनस्थलों पर लोगों द्वारा जमा किए जाने वाला प्लास्टिक कचरा पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा बनता जा रहा था जिससे निपटने के लिए सरकार के पास प्रतिबंध के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। लेकिन प्रतिबंध कितने कामयाब हो पाए हैं वैष्णो देवी यात्रा मार्ग और अमरनाथ यात्रा मार्ग पर लगे हुए प्लास्टिक के कचरे के ढेरों को देख कर लगाया जा सकता है। हालांकि वैष्णो देवी के यात्रा मार्ग पर प्लास्टिक कचरे को एकत्र करने के लिए थोड़ी बहुत व्यवस्था की गई है मगर अमरनाथ यात्रा मार्ग पर ऐसा कुछ नहीं है। नतीजतन भाग लेने वाले श्रद्धालु उसे पहाड़ों पर ही इधर-उधर फैंकते आ रहे हैं जिस कारण प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
 
जम्मू कश्मीर में इस प्रदूषण की मार सिर्फ पहाड़ ही नहीं झेल रहे हैं बल्कि कश्मीर की निशानियां झीलें भी इससे प्रताड़ित हो रही हैं। हालत तो यहां तक गंभीर है कि विश्व प्रसिद्ध डल झील के अस्त्तिव पर ही खतरा पैदा हो गया है जो प्रदूषण के कारण दिन-ब-दिन सिकुड़ती जा रही है। तभी तो, धरती का स्वर्ग कश्मीर अपनी जिस पहचान, डल झील के कारण विश्वभर में पहचाना जाता है आज वही झील, जिसके चमचमाते बेदाग आइने से साफ पानी में खुद प्रकृति मानो झुककर अपना प्रतिबिंब निहारती थी, आज अपने वजूद के लिए संघर्षरत है।
 
स्थिति यह है कि यदि तत्काल कुछ ठोस उपाय नहीं किए गए तो अगले कुछ वर्षों में इस झील का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। असल में झल झील जिसके सतह पर तैरते शिकारे पर्यटकों को लुभाते, जिसके बीचोंबीच स्थित चार चिनार के पेड़ ठंडी छांव की सुखद अनुभूति देते, वही डल झील आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। झील के किनारों पर बढ़ते अतिक्रमण, कूड़ा कचरा फैंके जाने और गंदा पानी बहाए जाने से डल झील धीरे-धीरे विनाश की ओर अग्रसर है। विशेषज्ञों का मानना है कि झील में तैरते बगीचों और जलग्रहण क्षेत्रों में खेती जारी रहने, अवैध अतिक्रमण और चारों और हो रहे निर्माण कार्य के कारण डल झील में पानी लगातार कम होता चला जा रहा है।
 
सतही तौर पर झल झील भले ही सुंदर प्रतीत होती हो मगर वास्तविकता यह है कि इसका पानी अब सड़ने लगा है। इस झील का स्वच्छ और निर्मल पानी अब लाल नजर आता है। इस लाल पानी के कारण झील का पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि वहां एक मछली का जीवित रहना भी असंभव हो गया है। कश्मीर में स्थित यह झील अब पर्यटन का केंद्र नहीं रह गई है। झील के आसपास के क्षेत्रों में रहने वाले इस बात को लेकर चिंतित हैं कि क्या डल दुबारा अपना खोया हुआ गौरव पा सकेगी। स्थिति यह है कि पर्यावरणविदों की ओर से यह आग्रह भी किया जा रहा है कि पर्यटन के तौर पर न सही, राष्ट्रीय विरासत के तौर पर इस झील की सुरक्षा के लिए आपात कदम उठाए जाने चाहिए जो अब अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रही है।

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