सितंबर माह में रिजर्व बैंक द्वारा घोषित नीति से न तो मुद्रास्फीति बढ़ने का भय कम हुआ है और न डॉलर के मुकाबले रुपए की विनिमय दर घट रही है। उल्टे उपभोक्ता माँग घट गई, निर्यात घट रहा है एवं आर्थिक विकास की दर मंद पड़ रही है। इसीलिए नीति में सोच-विचार जरूरी हो गया है। रिजर्व बैंक को बाजार की तरलता घटाने के लिए रिवर्स रेपो के तहत बाजार की तरलता खुद समेट रही है, वह भी छः प्रतिशत ब्याज पर। अब स्थिति कितनी उलटी है यह 31 अक्टूबर को देखना है।
अगर बढ़ी हुई ब्याज दर से उद्योग त्रस्त हैं तो दूसरी ओर भारत सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक भी त्रस्त है। रुपए की तरलता को सोखने की लागत तेजी से बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर न तो मुद्रास्फीति बढ़ने का भय घटा है और न ही डॉलर के मुकाबले रुपए की विनिमय दर कमजोर बन रही है।
शेयर खरीदने व रियल एस्टेट के विरुद्ध कर्ज नियंत्रण की नीति भी अधिक सफल नहीं रही है, क्योंकि इन क्षेत्रों को अब अन्य स्रोतों से पर्याप्त तरलता मिल रही है एवं उनके भावों में तेजी की स्थिति अधिक जोरदार बन गई है। अपनी नीतियों की असफलता के इस दौर में भारतीय रिजर्व बैंक 31 अक्टूबर या बाद में रियो व रिवर्स रिपो की ब्याज दर में एक- चौथाई प्रतिशत की कमी कर सकती है।
वहीं दूसरी ओर बैंकों की सीआरआर में आंशिक बढ़ोतरी भी संभव है। सीआरआर के तहत बैंकों की जमाखातों की जो रकम रिजर्व बैंक के पास रहती है उस पर ब्याज देकर बैंकों को कुछ राहत भी मिल सकती है। इन तमाम रियायतों के साथ रिजर्व बैंक चाहेगी कि भारत सरकार व सेबी क्रमशः पोर्टफोलियो निवेशकों (एफआईआई) के माध्यम से देश में आने वाले डॉलरों पर कुछ रोक लगाए एवं पीई (प्राइवेट इक्विटी फंड) के कामकाज पर सेबी सख्ती से निगाह रखे।
ये तमाम निर्णय लेने के साथ रिजर्व बैंक की निगाह अमेरिकी फेडरल बैंक द्वारा 31 अक्टूबर को ही लिए जाने वाले निर्णय पर भी रहेगी। अगर अमेरिकी फेडरल बैंक ब्याज को नहीं घटाता तो रिजर्व बैंक के लिए रेपो व रिवर्स रेपो दर घटाना कुछ सरल हो जाएगा क्योंकि तब अमेरिकी व भारत की ब्याज दर की खाई में कुछ कमी आएगी जिससे देश में डॉलर की आवक एवं अनिवासी भारतीयों द्वारा देश में डॉलर भेजने की तादाद कुछ घट सकेगी।
17 सितंबर को जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व (अमेरिकी रिजर्व बैंक) ने ब्याज दर घटाई थी तो तुलना में भारत की ब्याज दर अधिक थी इसलिए अधिक ब्याज की लालच में अमेरिकी निवेशक भारत में अधिक डॉलर भेजने लगे। भारत के आर्थिक घटक मजबूत होने की वजह से भी विभिन्न एफआईआई व पीई फंड कंपनियों ने भारत में अपना निवेश बढ़ा दिया जिससे देश में डॉलर की आवक बहुत बढ़ गई।
जब देश के विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर बेचने वाले अधिक हों एवं बदले में रुपए की मुद्रा चाहने लगे तो रुपए की विनिमय दर मजबूत बनेगी ही। ऐसा ही आज हो रहा है एवं डॉलर की तुलना में रुपए की विनिमय दर 11 प्रतिशत बढ़ गई। जब रुपए की दर मजबूत बनती है तो देश का निर्यात घटता है। इसलिए रिजर्व बैंक देश के विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर खरीदती है रुपए के बदले। इससे अर्थव्यवस्था में रुपए का प्रवाह बढ़ता है जो मुद्रास्फीति बढ़ाने में सहायक होता है। इसीलिए डॉलर खरीदने के साथ रिजर्व बैंक को रुपए के बढ़ते हुए प्रवाह को सोखना पड़ता है जो कि खर्चीला या लागत बढ़ाने वाला काम है।
सितंबर माह के अंतिम सप्ताह में इतने अधिक डॉलर देश में आए कि रिजर्व बैंक को एक सप्ताह में 12 अरब डॉलर खरीदने पड़े। ये सब डॉलर एफआईआई के थे। उसके बाद के सप्ताहों में प्रति सप्ताह 5 अरब डॉलर के मान से निवेश बढ़ गया जिससे शेयर बाजार व रियल एस्टेट बाजार में जोरदार तेजी की स्थिति बढ़ गई। देश में डॉलर की आवक जितनी बढ़ेगी रिजर्व बैंक को बाजार से उतने अधिक रुपए सोखने पड़ेंगे।
वह प्रतिदिन 50 हजार करोड़ रु. रिवर्स रेपो के माध्यम से बैंकों से कर्ज के रूप में प्राप्त कर रही है जिस पर बैंकों को छः प्रतिशत की दर पर ब्याज चुकाना पड़ रहा है। इसी तरह एमएसएस के तहत व खजाना बिलों के माध्यम से हर सप्ताह औसतन 20 हजार करोड़ रु. के सरकारी बांड व खजाना बिल बेच रही है जिन्हें बैंकें सब खरीद लेती हैं क्योंकि उन पर सरकार से 7 प्रतिशत से अधिक का ब्याज मिलता है। यही ब्याज अब सरकार व रिजर्व बैंक को भारी पड़ रहा है अर्थात बाजार में तेजी का खामियाजा सरकार चुका रही है।
इसी परिप्रेक्ष्य में रिजर्व बैंक रेपो व रिवर्स रेपो की ब्याज दर घटाकर अमेरिकी व योरपीय देशों की ब्याज दर कुछ सस्ता बना रही है। इससे भारत व इन देशों की ब्याज दर में जो विभेदता है वह कुछ कम होगी। इस कमी से देश में डॉलर की आवक कुछ घटना संभव है किंतु यह तभी होगा जब अमेरिकी व योरपीय देशों की केंद्रीय बैंकें अपनी ब्याज दर में कमी न करें। अब देखना यही है कि वे क्या करती हैं।