रुपए के मजबूत बनने से देश के निर्यात उद्योग पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इससे निर्यात घटने की चिंता तो है ही किंतु दूसरी ओर रोजगार भी घट रहे हैं। टेक्सटाइल्स, लेदर, ज्वेल एवं ज्वेलरी, फार्मा, आईटी, सॉफ्टवेयर आदि क्षेत्रों का मुनाफा घट रहा है। इससे उनमें नए रोजगार के अवसर तो घटे ही हैं, वरन कुछ में छँटनी भी शुरू हो गई है। आशंका है कि अगर स्थिति ऐसी ही रही तो मार्च 2008 तक करीब 4 लाख लोग रोजगार से हाथ धो बैठेंगे।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में धीमापन आने की संभावना बन गई है। इसके असर से संभव है भारतीय शेयर बाजार अधिक मंदा न पड़े किंतु डॉलर के मुकाबले रुपए की विनिमय दर अधिक मजबूत बनने की आशंका जरूर बनी रहेगी और भारतीय रिजर्व बैंक विदेशी पूँजी के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए एक के बाद दूसरी अनुशंसा जरूर करता रहेगा। पहले उसने विदेशी निवेशक इकाइयों को पीई के माध्यम से देश में शेयर खरीदने पर पाबंदी लगाने की वकालत की जिससे 16 अक्टूबर को देश का शेयर बाजार धराशायी हो गया और अब संभव है वह रियल एस्टेट में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर पाबंदी लगाने की माँग करे। अगर इस संबंध में कुछ प्रयास किया गया तो भय है कि बाजार में पुनः 16 अक्टूबर जैसी उठापटक की स्थिति बन जाए। उस समय तो वित्तमंत्री चिदंबरम एवं सेबी अध्यक्ष दामोदरन ने स्थिति संभाल ली, किंतु आगे से वे कुछ कर पाएँगे इसकी संभावना कम ही है।
भारतीय रिजर्व बैंक की परेशानी यह है कि देश में डॉलर की आवक थम ही नहीं रही है। देश के विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर के खरीददार बहुत कम हैं एवं अधिकांश को डॉलर के बदले रुपया चाहिए इसलिए डॉलर की तुलना में रुपए की विनिमय दर मजबूत बनती जा रही है। ऊँची बैंक ब्याज दर एवं ऊपर से महँगे रुपए की वजह से देश में कुछ उद्योगों का विक्रय घट रहा है, कुछ का निर्यात एवं अन्य की लाभप्रदता घट रही है। यह स्थिति देश के हित में नहीं है। दूसरी ओर जब डॉलर के खरीददार कम होते हैं तो भारतीय रिजर्व बैंक को वे डॉलर रुपए के बदले खरीदने पड़ते हैं। इससे अर्थव्यवस्था में रुपए की प्रवाहिता बढ़ती है जिससे देश में महँगाई व मुद्रास्फीति में वृद्धि की आशंका बनती जा रही है, जो देश की तेज आर्थिक विकास दर के लिए घातक है।
सबसे बड़ी बात यह भी है कि रुपए के मजबूत बनने से देश के निर्यात उद्योग पर बहुत ही विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इससे निर्यात घटने की चिंता तो है ही किंतु दूसरी ओर रोजगार भी घट रहे हैं। टेक्सटाइल्स, लेदर, ऑटोमोबाइल, ज्वेल एवं ज्वेलरी, फार्मा, आईटी, सॉफ्टवेयर आदि क्षेत्रों का मुनाफा घट रहा है। इससे उनमें नए रोजगार के अवसर तो घटे ही हैं, वरन कुछ में छँटनी भी शुरू हो गई है। टेक्सटाइल्स व लेदर क्षेत्र के उद्योगों में अप्रैल माह में ही करीब 35,000 के रोजगार पर तलवार चल गई है। अगर रुपया मजबूत बना रहा तो विदेशों में भारतीय निर्यात अधिक महँगा पड़ेगा और निर्यात घटेगा तो देश में रोजगार भी घटेगा। आशंका है कि अगर स्थिति ऐसी ही रही तो मार्च 2008 तक करीब 4 लाख लोग रोजगार से हाथ धो बैठेंगे।
भारतीय रिजर्व बैंक विदेशी पूँजी की आवक पर रोक लगाने की बात न करे इसलिए जरूरी है कि सरकार सबसे पहले देश के निर्यात को कुछ सस्ता बनाने की पहल करे। इसके लिए उद्योगों ने अनेक सुझाव दिए हैं, जैसे (1) राज्यों ने निर्यात पर जो शुल्क लगाए हैं उन्हें केंद्र उद्योगों को मुजरा दे, (2) निर्यात के लिए केंद्रीय शुल्कों को वापस उद्योगों को लौटाने की व्यवस्था को अधिक उदार बनाएँ, (3) निर्यातकों के लिए सरकार रुपए की दोहरी विनिमय दर की नीति लागू करे अर्थात निर्यात में कमाए जाने वाले डॉलरों के बदले उन्हें अधिक रुपए मिले। अभी रुपए की विनिमय दर प्रति डॉलर 40 रु. से कुछ कम है। निर्यातक चाहते हैं कि उन्हें प्रति डॉलर 42 या 43 रु. मिलें एवं (4) निर्यातकों को विदेश से नकद में कच्चा माल खरीदने एवं उधार पेटे निर्यात करने के लिए बैंक ब्याज की दर घटाई जाए एवं कर्ज का आकार बढ़ाया जाए।
सरकार को निर्यातकों की कुछ माँग तो मानना ही पड़ेगी और आज नहीं तो कल इसकी घोषणा करना ही पड़ेगी, क्योंकि निर्यातकों की बढ़ती जोखिम के पेटे सरकार कुछ सुविधा देने से इंकार नहीं कर सकती। वह भी चाहती है कि निर्यात अधिक न घटे एवं छँटनी की रफ्तार भी रुक जाए।