बदलेगी विनिमय दर नीति!

विट्‍ठल नागर

मंगलवार, 1 अप्रैल 2008 (18:48 IST)
भारतीय रिजर्व बैंक का प्रयास अभी तक यही रहा है कि देश के विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर की तुलना में रुपए की विनिमय दर एकदम अधिक मजबूत न बने और इसीलिए वह अभी तक जब-तब डॉलर खरीदकर रुपए की दर को कमजोर बनाता रहा है एवं रुपए की प्रवाहिता बढ़ाता रहा है।

किंतु अब बदली हुई वैश्विक परिस्थिति में संभव है जब-तब रुपया कमजोर बने। इस कमजोरी को दूर करने के लिए रुपया खरीद सकता है। अर्थात डॉलर का बेचान कर सकता है। इससे प्रणाली में रुपए की तरलता घटने से रुपए की विनिमय दर मजबूत बन सकेगी एवं देश में मुद्रास्फीति का दबाव कुछ घट सकेगा।

आज परिदृश्य ऐसा नहीं है कि रिजर्व बैंक द्वारा बैंक ब्याज दर घटाई जा सके- इसलिए संभव है कि वह रेपो व रिवर्स रेपो दर के फर्क (स्प्रेड) को बढ़ा सकता है। जब रिजर्व बैंक बैंकों से कर्ज लेता है तो उसे रेपो कहते हैं एवं इस उधार पर रिजर्व बैंक बैंकों को 6 प्रतिशत की दर से ब्याज अदा करता है।

रिवर्स रेपो में रिजर्व बैंक बैंकों को अल्प अवधि का कर्ज देता है एवं उस पर 7.75 प्रतिशत का ब्याज वसूलता है। अभी रेपो व रिवर्स रेपो की ब्याज दर में फर्क 1.75 प्रतिशत का है। लिहाजा रेपो की दर और घटाकर या रिवर्स रेपो की ब्याज दर बढ़ाकर इस फर्क में वृद्धि लाई जा सकती है। नई दर क्या रहेगी यह तो अप्रैल माह में तब मालूम पड़ेगा जब रिजर्व बैंक नई मौद्रिक नीति की घोषणा करेगा।

वैसे इन दिनों उसे एक ओर देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक आर्थिक मंदी से बचाना है एवं दूसरी ओर देश की बैंकों व कंपनियों कसबप्राइम के संकट से। संकट के इस दौर में वह यह भी चाहता है कि आर्थिक वृद्धि दर आकर्षक बनी रहे एवं मुद्रास्फीति भी अधिक न बढ़े। वास्तव में उसे सबसे अधिक चिंता मुद्रास्फीति की है, जिसे नियंत्रण में रखने के लिए उसके पास अधिक औजार भी नहीं हैं

सरकारी तंत्र ही आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धि बढ़ाकर महँगाई पर काबू पा सकता है, किंतु अल्प अवधि में कृषि उत्पादों की उपलब्धि बढ़ाना संभव नहीं है। सरकार आयात के माध्यम से जरूरी वस्तुओं की उपलब्धि बढ़ाने का प्रयास कर रही है, किंतु जब आयातित वस्तुएँ ही अधिक महँगी हों तो स्थिति निराशा की बनती ही है। लिहाजा नीति निर्धारक (सरकार व रिजर्व बैंक) यही चाहेंगे कि वैश्विक वित्तीय बाजार का संकट शीघ्र समाप्त हो, ताकि भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा दबाव कुछ कम हो।

भारतीय रिजर्व बैंक किस दबाव में काम कर रहा है, उसका आभास रिजर्व बैंक के गवर्नर वायवी रेड्डी के उस संबोधन से मिलता है, जो गत दिनों उन्होंने हैदराबाद में इंडियन इकॉनोमैट्रिक सोसाइटी के 44वें समारोह में दिया था। उन्होंने देश के विदेशी मुद्रा बाजार के कारोबारियों (मुख्यतया बैंकों) से कहा कि वे यह मानकर न चलें कि डॉलर के मुकाबले में रुपए की विनिमय दर मजबूत ही रहेगी, क्योंकि वैश्विक तरलता के मिजाज में जो बदलाव आ रहा है, उससे चोट पहुँच सकती है।

फिर विश्व बाजार इन दिनों हर तरह की जोखिमों से काफी डरा हुआ है, जिससे देश में विदेशी मुद्रा की आवक कभी-कभार घट भी सकती है। अभी तक रिजर्व बैंक प्रणाली में तरलता को घटाने का भरपूर प्रयास करता रहा है, किंतु अब संभव है तरलता बढ़ाने की जरूरत भी पड़ सकती है। तरलता को घटाने की बजाय तरलता बढ़ाना अधिक सरल है। सीआरआर घटाकर एवं बाजार में बेचे गए सरकारी एमएसएस बॉण्डों को पुनः खरीद कर रिजर्व बैंक प्रणाली में तरलता बढ़ा सकता है।

इससे यह तय लगता है कि अब धीरे-धीरे भारतीय रुपए की विनिमय अधिक लचीली बन सकती है- अर्थात इस दर में अब एक जैसमजबूती की स्थिति नहीं रहेगी। यानी यह दर वैश्विक परिस्थिति के अनुरूप कभी मजबूत तो कभी कमजोर बन सकती है, किंतु परेशानी की बात यही है कि देश की अर्थव्यवस्था लचीलेपन के प्रति अधिक उत्प्रेरक नहीं है जैसी कि विकसित देशों की अर्थव्यवस्था है। वह लचीलेपन की वजह से ही जोखिमों से बची रहती है। फिर भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक वित्तीय बाजार के मिजाज को बदल नहीं सकती।

इसलिए रिजर्व बैंक को वैश्विक परिदृश्य में आने वाले बदलावों व उभरने वाली जोखिमों के प्रति अधिक सचेत रहना पड़ता है। वह देश की तरह रिजर्व बैंक को भी पूँजीगत खाते एवं मौद्रिक प्रबंधन के माध्यम से देश की आर्थिक वृद्धि दर की तेज रफ्तार को बनाए रखने के प्रयास के साथ मूल्य व वित्तीय क्षेत्र में स्थायित्व के लिए प्रयत्नशील रहना होगा।

वर्ष 2006-07 में व बाद में रिजर्व बैंक ने ऊँची ब्याज दर व मौद्रिक संकुचन की जिस नीति को लागू किया था वह आगबबूला बनी अर्थव्यवस्था को कुछ शिथिल बनाने के लिए जरूरी था। इस सख्त नीति के बावजूद वर्ष 2007-08 की प्रथम छः माही अवधि (अप्रैल से सितंबर) तक देश की आर्थिक वृद्धि दर तेज-तर्रार बनी रही, कंपनियों की लाभप्रदता भी बढ़ती रही एवं बचत व निवेश भी बढ़ता रहा।

अगर अमेरिका में सबप्राइम का संकट नहीं उभरता एवं वैश्विक वित्तीय बाजार ठंडा बर्फ नहीं बनता तो देश की वृद्धि दर संभव है 8 प्रतिशत से अधिक बनी रहती। देखा जाए तो रिजर्व बैंक ने ब्याज दर को ऊँची बनाए रखकर, बैंकों पर वेटेज व अन्य प्रावधानों का प्रतिबंध न लगाया होता एवं मौद्रिक सिकुड़न की नीति न अपनाई होती तो आज देश की बैंकों एवं कंपनियों की जोखिम बहुत अधिक बढ़ गई होती एवं देश की अर्थव्यवस्था भी डाँवाडोल का शिकार हो गई होती

आज देश की अर्थव्यवस्था में चाहे कुछ धीमापन भले ही आया हो, किंतु आर्थिक वृद्धि की दर अभी भी 7 प्रतिशत से अधिक रहने की पूरी संभावना है। यह दर भी चीन को छोड़कर विश्व में सबसे अधिक है।

लिहाजा यह तय है कि जब-जब रुपए की विनिमय दर में कमजोरी आएगी तब-तब रिजर्व बैंक उस दर को मजबूत बनाएगा। इससे उत्तरी अमेरिकी देशों को भारत का निर्यात कुछ घटेगा, किंतु एशिया प्रशांत क्षेत्र एवं पश्चिमी योरप में भारत का निर्यात बढ़ेगा। वर्ष 2007-08 के प्रथम सात माह (अप्रैल से अक्टूबर) में देश के कुल विदेश व्यापार का 14.7 प्रतिशत व्यापार अमेरिका के साथ हुआ, जबकि एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ 50.2 प्रतिशत एवं पश्चिमी योरप के देशों के साथ 22.7 प्रतिशत व्यापार हुआ है।

अगर रुपया महँगा रहेगा तो पेट्रोल, गैस, खाद्यान्न एवं पूँजीगत माल का आयात सस्ता होगा, जिससे मुद्रास्फीति को बढ़ने से रोका जसकेगा। पूँजीगत माल के सस्ता होने से देश का वेल्यूएडेड निर्यात कुछ सस्ता होगा। आयात की लागत घटने का मतलब यही है कि महँगाई की रफ्तार को कुछ नियंत्रित करना।

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