Mahabharat : महाभारत में युद्ध में लगभग 45 लाख लोगों ने भाग लिया था। हालांकि ऐसे भी हजारों योद्धा या लोग थे जिन्होंने युद्ध में तो भाग नहीं लिया था लेकिन उन्होंने युद्ध को भयंकर रूप से प्रभावित किया। आज से करीब 5000 साल पहले महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था। इस युद्ध में कौरव और पांडवों सहित उनकी सेनाओं ने भाग लिया था परंतु कुरुक्षेत्र के इस युद्ध में कई योद्धाओं ने कुछ कारणवश भाग नहीं लिया था। उनकी लड़ने की इच्छा रह गई थी या वे लड़ना ही नहीं चाहते थे। हालांकि अब कहा जा रहा है कि वे योद्धा अब चौथे महायुद्ध में शामिल होंगे।
क्या है चौथा महायुद्ध?
पहला धर्मयुद्ध सतयुग में देवता और देत्यों में हुआ था जिसे देवासुर संग्राम कहा गया, दूसरा धर्मयुद्ध त्रेता में हुआ था जिसे राम और रावण का युद्ध कहा गया, तीसरा धर्मयुद्ध द्वापर में हुआ था जिसे महाभारत का युद्ध कहा गया, परंतु अब जल्द ही चौथा धर्मयुद्ध होने वाला है जिसे भगवान कल्कि लड़ेंगे। संत अच्युतानंद क किताब भविष्य मालिका के अनुसार चौथा धर्मयुद्ध महाविनाश लाएगा। इस युद्ध में वे योद्धा भी शामिल होंगे जिन्होंने महाभारत के युद्ध में भाग नहीं लिया था।
किन योद्धाओं ने नहीं लड़ा था कुरुक्षेत्र का युद्ध?
1. बर्बरीक : भीम पौत्र और घटोत्कच के पुत्र दानवीर बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने दान में उसका शीश मांग लिया था। उसकी इच्छा थी कि वह महाभारत का युद्ध देखे तो श्रीकृष्ण ने उसको वरदान देकर उसका शीश एक जगह रखवा दिया। जहां से उसने महाभारत का संपूर्ण युद्ध देखा। कहते हैं कि जब वे कौरव की सेना को देखते थे तो उधर तबाही मच जाती थी और जब वे पांडवों की सेना की ओर देखते थे तो उधर की सेना का संहार होने लगता था। ऐसे में उनका शीश दूर पहाड़ी पर स्थापित कर दिया गया था। युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किस को जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अत: उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। इसे पर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि उन्हें तो युद्ध युद्धभूमि में चारों ओर सिर्फ श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही घूमता हुआ दिखायी दे रहा था, जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
2. युयुत्सु : कौरवों का सौतेला भाई जिसने युधिष्ठिर के समझाने पर युद्ध के एन वक्त पर कौरवों को छोड़कर पांडवों का साथ देने का निश्चिय किया। अपने खेमे में आने के बाद युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु की योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। इस तरह कौरवों की सेना कमजोर हो गई थी, क्योंकि वे कौरवों की सेना और उसकी शक्ति का संपूर्ण ज्ञान रखते थे। जब युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने लगे तब उन्होंने परीक्षित को राजा और युयुत्सु को उनका संरक्षक बना दिया था।
3. बलराम : महाभारत में वर्णित है कि जिस समय युद्ध की तैयारियां हो रही थीं और उधर एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम, पांडवों की छावनी में अचानक पहुंचे। दाऊ भैया को आता देख श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर आदि बड़े प्रसन्न हुए। सभी ने उनका आदर किया। सभी को अभिवादन कर बलराम, धर्मराज के पास बैठ गए। फिर उन्होंने बड़े व्यथित मन से कहा कि कितनी बार मैंने कृष्ण को कहा कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। दोनों को मूर्खता करने की सूझी है। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं, पर कृष्ण ने मेरी एक न मानी। कृष्ण को अर्जुन के प्रति स्नेह इतना ज्यादा है कि वे कौरवों के विपक्ष में हैं। अब जिस तरफ कृष्ण हों, उसके विपक्ष में कैसे जाऊं? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा सीखी है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा स्नेह है। इन दोनों कुरुवंशियों को आपस में लड़ते देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता अतः में तीर्थयात्रा पर जा रहा हूं।
4. उडुपी के राजा : महाभारत युद्ध की घोषणा हुई तो सभी राज्यों के राजा अपना-अपना पक्ष तय कर रहे थे। कोई कौरवों की तरफ था, तो कोई पांडवों की तरफ। इस दौरान कई ऐसे भी राजा थे जिन्होंने तटस्थ रहना तय किया था। मान्यता के अनुसार उन्हीं में से एक उडुपी के राजा भी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने पर भोजन का प्रबंधन संभाला। वे युद्ध में शामिल नहीं हुए थे।
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5. संजय : संजय ने भी युद्ध में भाग नहीं लिया था। महाभारत युद्ध में सूत पुत्र संजय ने महर्षि वेदव्यास से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व ग्रहण किया था। वेद व्यास ने उनको दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय। यहीं नहीं, देवताओं के लिए दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी सिर्फ इन दो लोगों ने ही किया था। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त थी, अत: वे युद्धक्षेत्र का समस्त दृश्य महल में बैठे ही देख सकते थे। नेत्रहीन धृतराष्ट्र ने महाभारत-युद्ध का प्रत्येक अंश उनकी वाणी से सुना।
6. वेदव्यास : पराशर मुनि और सत्यवती के पुत्र वेदव्यास ने ही महाभारत लिखी है। उनकी कृपा से ही सत्यवती और शांतनु के पुत्र विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका को पुत्र की प्राप्ति हुई थीं। अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्मालिका से पांडु और बाद में अम्बिका वेदव्यास के समक्ष नहीं गई और उसने अपनी दासी को भेज दिया तो दासी से विदुर का जन्म हुआ। तीनों ही ऋषि वेदव्यास की संतान थी। इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ।
वेदव्यास ऋषि ने ही कौरव और पांडवों को शिक्षा और दीक्षा दी थी। उन्होंने ही युद्ध के अंत में अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र को छोड़े जाने के बाद उसे पुन: वापस लेने को कहा था। उन्होंने ही संजय को दिव्य दृष्टि दी थी ताकि वह महाभारत का युद्ध देख सके और उन्होंने ही पांडवों को स्वर्ग जाने का आदेश दिया था। युद्ध के 15 साल बाद एक रात के लिए उन्होंने ही सभी योद्धाओं को जीवित कर दिया था। इस तरह महर्षि वेदव्यास महाभारत में रह महत्वपूर्ण घटनाक्रम में उपस्थित होते हुए नजर आते हैं।
7. विदुर : महात्मा विदुर हस्तिनापुर के राज्य मंत्री होने के कारण कौरव पक्ष से जुड़े हुए थे। महाराज धृतराष्ट्र को समर्पित थे। उनकी निष्ठा सत्य कि तरफ होने से वह पांडव पक्ष के लिए भी सद्भावना रखते थे। पांडवों के वनवास और अज्ञातवास के समय उनकी माता कुंती विदुर के ही घर मे रही थी और विदुरजी ने कुंती कि देखभाल कि थी। उनके लिए धर्मसंकट था कि वे किस ओर से लड़े। इसलिए उन्होंने युद्ध में भाग नहीं लिया।
8. धृतराष्ट्र : धृतराष्ट्र की भी बहुत इच्छा थी परंतु अंधा होने के कारण वे युद्ध में शामिल नहीं हो सकते थे। उन्होंने अपने पक्ष से दुर्योधन को पुरा कार्यभार सौंप दिया और उसने राजा का उत्तराधिकारी बनकर अपनी सेना का संचालन करने दीया। इनकी तरफ से पितामह भीष्म, गुरु द्रोण,कुलगुरु कृपाचार्य, सगे संबंधी आदि ने अपने पक्ष में ग्यारह अक्षोहिणी सेना एकत्रित कर पांडवों कै समक्ष भीषण चुनौती पेश की।
9. रुक्म : श्रीकृष्ण के साले राजा रुक्म जो उनकी प्रथम पटरानी रुक्मणि के बड़े भाई थे, ने भी युद्ध में भाग लिया। दरअसल वे युद्ध में भाग लेने आए थे लेकिन इनको अपने शेखी बघारने के कारण न पांडवों ने अपने पक्ष मे मिलाया न कौरवों ने। किसी ने भी इन्हें अपने पक्ष में शामिल नहीं किया।
10. सारथी : युद्ध में सभी हाथी और रथों के सारथियों में से बुहतों ने प्रत्यक्ष रूप से कभी युद्ध नहीं लड़ा। वे बस योद्धाओं के रथ या हाथी को चलाते रहे। उनमें से बहुत तो पहले ही मारे जाते थे जिनके स्थान पर दूसरे सारथी की नियुक्ति हो जाती थी। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी थे। कर्ण के सारथी शल्य थे।
11. श्रीकृष्ण : युद्ध में सभी हाथी और रथों के सारथियों में से बुहतों ने प्रत्यक्ष रूप से कभी युद्ध नहीं लड़ा। वे बस योद्धाओं के रथ या हाथी को चलाते रहे। उनमें से बहुत तो पहले ही मारे जाते थे जिनके स्थान पर दूसरे सारथी की नियुक्ति हो जाती थी। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी थे। कर्ण के सारथी शल्य थे। शल्य ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से भूमिका निभाई परंतु श्रीकृष्ण ने युद्ध में कभी हथियार नहीं उठाया और ना ही उन्होंने किसी योद्धा का वध किया फिर भी उन्होंने सबसे ज्यादा युद्ध को प्रभावित किया।
इसके अलावा देवराज इंद्र, हनुमानजी, परशुराम जी के बारे में भी बात की जाती है। ये सभी कलयुग में भगवान कल्कि की सहायता करेंगे।
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