पिछले वर्ष हुए दिल्ली दंगों के तीन आरोपियों देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल को दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा दी गई जमानत और इसके लिए की गई टिप्पणियों को उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिये स्वीकार करना महत्वपूर्ण है। हालांकि शीर्ष न्यायालय ने उनके जमानत को रद्द नहीं किया, लेकिन सुनवाई के लिए मामले को स्वीकार करने के संकेत के मायने हैं।
ध्यान रखिए कि तत्काल कोई फैसला या अंतिम मंतव्य न देते हुए भी शीर्ष न्यायालय ने कहा है कि उच्च न्यायालय के फैसले को देश के किसी भी न्यायालय में नजीर न माना जाए। पूरा मामला गैर कानूनी रोकथाम कानून यानी यूएपीए से जुड़ा है और उच्च न्यायालय ने इस पर भी टिप्पणियां की है। शीर्ष न्यायालय द्वारा ऐसा कहने के बाद अब इस कानून के तहत बंद आरोपियों के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को उद्धृत नहीं किया जाएगा। कभी कोई पक्षकार अब इसका हवाला नहीं दे सकेगा।
15 जून को तीनों आरोपियों को जमानत देने के फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यूएपीए, नागरिकता संशोधन कानून, विरोध प्रदर्शन पर पुलिस प्रशासन के रुख पर काफी तीखी टिप्पणियां की थी। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि सरकार विरोध प्रदर्शन दबाने की चिंता में प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों में फर्क नहीं कर पा रही है। इससे विरोध प्रदर्शन और आतंकवादी गतिविधियों की रेखा धुंधली हो रही है।
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा था कि हिंसा नियंत्रित हो गई थी और इस मामले में यूपीए लागू ही नहीं होगा।
वास्तव में दिल्ली दंगे और यूएपीए को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय की यह असाधारण प्रतिक्रिया है। दिल्ली पुलिस की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि यह मामला महत्वपूर्ण है और इसके देशव्यापी परिणाम हो सकते हैं। जिस तरह कानून की व्याख्या की गई है संभवत: उस पर शीर्ष न्यायालय की व्याख्या की जरूरत होगी।
शीर्ष न्यायालय ने यह भी कहा है कि नोटिस जारी किया जा रहा है और दूसरे पक्ष को भी सुना जाएगा। यह स्वाभाविक है, क्योंकि न्यायालय कभी भी एक पक्ष को सुनकर कोई फैसला नहीं दे सकता। इसलिए शीर्ष न्यायालय द्वारा तीनों आरोपियों को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगना न्यायिक प्रक्रिया का स्वाभाविक अंग है। तो जुलाई के तीसरे सप्ताह में होने वाली सुनवाई पर पूरे देश की नजर होगी।
वास्तव में अगर जमानत पर दिए गए उच्च न्यायालय के फैसले को पढें तो ऐसा लगता है जैसे उसने यूएपीए कानून के तहत विहित प्रक्रिया को काफी हद तक पलटि है। जमानत के लिये दायर याचिका में आरोपियों पर लगे आरोपों पर बात करने के साथ उसने संपूर्ण कानून पर टिप्पणी कर दी है। जिस तरह की टिप्पणियां है उससे लगता है जैसे न्यायालय तीनों आरोपियों को भी दोषी नहीं मानती। जैसा हम जानते हैं शाहीनबाग में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक मुख्य मार्ग को घेर कर दिए गए धरने का दिल्ली में विस्तार करने के लिए प्रकट आक्रामकता फरवरी में दंगों में परिणत हो गया।
इसमें 53 लोग मारे गए जिसमें पुलिसकर्मी भी थे और 700 से ज्यादा लोग घायल हुए। यह हिंसा उस समय हुई थी जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आए थे। साफ है कि हिंसा के पीछे सुनियोजित साजिश थी ताकि नागरिकता संशोधन कानून के आधार पर सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा सुननी पड़े। आरोपी वास्तविक दोषी हैं या नहीं इस पर अंतिम फैसला न्यायालय करेगा।
नागरिकता संशोधन कानून को हालांकि देश के बहुमत का समर्थन प्राप्त था और है लेकिन एक वर्ग उसका विरोधी भी था और आज भी है। किसी लोकतांत्रिक समाज का यह स्वाभाविक लक्षण है। किंतु इसका अभिप्राय नहीं कि हम किसी कानून का विरोध करते हैं तो हमें सड़क घेरने, आगजनी करने, निजी-सार्वजनिक संपत्तियों को किसी तरह का नुकसान पहुंचाने, पुलिस पर हमला करने और इसके लिए अलग-अलग तरीकों से लोगों को भड़काने का भी अधिकार मिल जाता है। यह सब भयानक अपराध के दायरे में आते हैं।
दंगों के दौरान लोगों ने देखा कि किस तरह योजनाबद्ध तरीके से कई प्रकार के बम बनाए गए थे, अवैध हथियारों का उपयोग हुआ था, सरकारी निजी संपत्ति संपत्तियां जलाई गई थीं, निर्मम तरीके से हत्याएं हुईं थीं। जाहिर है, इसके साजिशकर्ताओं को कानून के कटघरे में खड़ा कर उनको सजा दिलवाना पुलिस का दायित्व है।
उच्च न्यायालय के सामने नागरिकता संशोधन कानून की व्याख्या का प्रश्न नहीं था। बावजूद उसने लिखा है कि प्रदर्शन के पीछे यह विश्वास था कि नागरिकता संशोधन कानून एक समुदाय के खिलाफ है। जब भी कोई व्यक्ति या समूह आतंकवादी हमला करता है या कोई बड़े नेता की हत्या करता है तो उसका तर्क इसी तरह का होता है कि उन्होंने एक समुदाय, एक समाज, एक व्यक्ति के साथ नाइंसाफी की। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के हत्यारों का तर्क भी तो यही था।
न्यायालय पता नहीं क्यों इस मूल बात पर विचार नहीं कर पाया कि प्रदर्शन के अधिकार में सड़कों को घेरने, पुलिस से मुठभेड़ करने, हिंसा द्वारा मेट्रो रोकने से लेकर लोगों को मारने और बम फेंकने का अधिकार शामिल नहीं होता। यह तर्क भी आसानी से गले नहीं उतरता कि अगर हिंसा नियंत्रित हो गई तो यूएपीए लागू ही नहीं होगा। अगर हिंसा की साजिश बड़ी हो और उसे पुलिस और खुफिया एजेंसियां विफल कर दें तो क्या उनके साजिशकर्ताओं पर कानून लागू नहीं होता? व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह ने विस्फोट के लिए जगह-जगह बम लगा दिए और पुलिस ने उसे पकड़कर निष्क्रिय कर दिया तो क्या इससे अपराध की तीव्रता कम हो जाएगी?
निश्चय ही उच्चतम न्यायालय का अंतिम फैसला आने के पूर्व हम कोई निष्कर्ष नहीं दे सकते।
न्यायिक मामलों में पूर्व आकलन की गुंजाइश नहीं होती। बावजूद कुछ संकेत मिलता है। वस्तुतः उच्च न्यायालय का भी अपना सम्मान है। उच्चतम न्यायालय उसके फैसले पर नकारात्मक टिप्पणी करने या माननीय न्यायाधीशों के बारे में ऐसी कोई टिप्पणी करने से प्रायः बचता है जिससे उनके सम्मान को किसी तरह धक्का पहुंचे। हमने देखा है कि उच्च न्यायालय के फैसलों को रद्द करते हुए भी उच्चतम न्यायालय ज्यादातर मामलों में केवल मुकदमे के गुण-दोष तक ही अपनी टिप्पणियां सीमित रखता है। यही इस मामले में भी दिख रहा है।
शाहीनबाग धरने को लेकर उस समय भी उच्चतम न्यायालय ने तीखी टिप्पणियां की थी। न्यायालय ने सड़क घेरना, आवाजाही को बंद करना आदि को अपराध करार दिया था। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया जिनमें आंदोलनकारियों के धरना प्रदर्शन के अधिकार को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि कानून और संविधान की सीमाओं के तहत ऐसा किया जाए तथा सड़कों पर चलने वालों या उनके आसपास के दुकानदारों के अधिकार का भी ध्यान रखा जाए।
न्यायालय ने यहां तक कहा है कि अगर वे सड़कों, गलियों या ऐसे सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करते हैं तो पुलिस को उसे खाली कराने का अधिकार हासिल हो जाता है। उच्च न्यायालय ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है। निश्चित रूप से आगे की सुनवाई में यह विषय भी सामने आएगा। सांप्रदायिक और कुत्सित वैचारिक सोच के आधार पर सुनियोजित हिंसा, आतंकवाद आदि भारत नहीं संपूर्ण विश्व की समस्या है।
ऐसे मामलों के आरोपियों पर विचार करते समय न्यायालय सामान्यतः अतीत, वर्तमान और भविष्य के संपूर्ण परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखता रहा है। पिछले दो दशकों में हुई ऐसी हिंसा के मामलों में आए फैसलों और टिप्पणियां इसके प्रमाण हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा अंतिम मंतव्य देने से स्थिति स्पष्ट हो जाएगी तथा सांप्रदायिकता हिंसा, आतंकवाद आदि फैलाने के साजिशकर्ताओं से कानूनी स्तर पर मुकाबला करने वाली एजेंसियों के सामने भी स्पष्ट तस्वीर होगी। (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)