प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर और न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ की पीठ ने दाऊदी बोहरा वीमन्स एसोसिएशन फॉर रिलीजियस फ्रीडम (डीबीडब्ल्यूआरएफ) की दलीलों पर विचार किया कि महिलाओं के खतना की प्रथा दाऊदी बोहरा समुदाय में सदियों से है और इसकी वैधता का परीक्षण एक बड़ी पीठ को करना चाहिए कि क्या यह अनिवार्य धार्मिक प्रथा है, जो संविधान के तहत संरक्षित है?
केंद्र की ओर से अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सरकार के पुराने रुख को दोहराया था कि वह इस प्रथा के खिलाफ है, क्योंकि इससे मौलिक अधिकारों का हनन होता है। उन्होंने कहा था कि यह अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और करीब 27 अफ्रीकी देशों में प्रतिबंधित है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 25 का भी उल्लेख किया था जिसमें कहा गया है कि अगर कोई धार्मिक प्रथा लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के खिलाफ जाती है तो इसे रोका जा सकता है।
वेणुगोपाल ने एफजीएम की प्रथा के खिलाफ दिल्ली की वकील सुनीता तिवारी की जनहित याचिका को 5 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजने की डीबीडब्यूआरएफ की दलीलों का सोमवार को समर्थन किया। डीबीडब्ल्यूआरफ का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता एएम सिंघवी कर रहे थे। न्यायालय ने केंद्र समेत पक्षकारों के लिखित कथन पर विचार किया और कहा कि वह याचिका को 5 सदस्ईय संविधान पीठ के पास भेजने के लिए आदेश देगी।
उन्होंने कहा कि यह साफतौर पर मामले में फैसले में विलंब करने के इरादे से किया गया है जिसमें 3 न्यायाधीशों की पीठ पहले ही विस्तार से दलीलें सुन चुकी है जिसके समक्ष यह लंबित है। इससे पहले डीबीडब्ल्यूआरएफ ने कहा था कि अदालतों को जनहित याचिका के माध्यम से महिलाओं के खतना की सदियों पुरानी धार्मिक प्रथा की संवैधानिकता पर फैसला नहीं करना चाहिए। (भाषा)