कैसे हो परमात्मा की प्राप्ति?

सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अंत:करण के अनुरूप होती है। अक्सर लोगों का कथन होता है कि, ‘हम लोग बहुत वर्षों से सत्संग करते आ रहे हैं और अपनी समझ तथा शक्ति के अनुसार साधना भी करते है, पर जैसी उन्नति होनी चाहिए वैसी उन्नति नहीं दिखाई पड़ती इसका क्या कारण है? हम लोगों की उन्नति कैसे हो?’ 
 
इसका उत्तर यह है कि... श्रद्धा, विश्वास की कमी ही साधना में रुकावट डालने वाली है। इसीलिए श्रद्धा के विषय में गहराई से विचार करके श्रद्धा को बढ़ाना चाहिए। श्रद्धा के योग्य ये चार हैं... ईश्वर, ज्ञानी महात्मा, गीता आदि शास्त्र और अपनी आत्मा। इन चारों से किसी एक पर भी पूर्णतया श्रद्धा विश्वास हो जाए तो मनुष्य का सहज ही कल्याण हो सकता है। श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त कर वह बिना विलंब के तत्काल ही भगवत प्राप्ति रूप परम शांति को समझ पाता है। 
 
इससे यह समझना चाहिए कि श्रद्धा की कसौटी है तत्परता और तत्परता की कसौटी है मन-इंद्रियों का संयम, क्योंकि जितनी श्रद्धा होती है उतनी ही साधना के लिए के लिए इंद्रियों का संयम होता है। 
 
ईश्वर श्रद्धा विश्वास...
 
हम लोगों को ईश्वर पर इस प्रकार दृढ़ विश्वास करना चाहिए की ईश्वर है, ईश्वर सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ, अंतर्यामी, परम दयालु, दिव्य गुणों से संपन्न सर्वशक्तिमान परब्रह्म परमात्मा हैं। उनकी प्राप्ति होने पर मनुष्य के सारे दुख, दुर्गुण, दुराचार, आलस्य, प्रमोद और अज्ञान का विनाश होकर सदा के लिए संसार जाल से छूट जाता है। मनुष्य को परमानंद की प्राप्ति हो जाती है, जिसको गीता में निर्वाण ब्रह्म की, अमृत की प्राप्ति और परम गति की प्राप्ति आदि अनेक नामों से कहा गया है। 
 
जब मनुष्य का उन सर्वशक्तिमान सर्वांतर्यामी परम दलायु परमात्मा पर भक्तिपूर्वक प्रत्यक्ष की भांति श्रद्धा, विश्वास हो जाता है, तब फिर उसके द्वारा जो भी कुछ कार्य होता है वो भगवान की आज्ञा के अनुसार ही होता है। अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ भी जड़ चेतन स्वरूप जगत है वह समस्त ईश्वर से व्याप्त (पूर्ण) है। 
 
ज्ञानी महात्मा पुरुष पर श्रद्धा विश्वास...
 
हमें यह भी विश्वास करना चाहिए कि ज्ञानी महात्मा पुरुष भी बहुत से हुए हैं और वर्तमान में भी हैं तथा भविष्य में भी होंगे। जो कर्म योग, भक्ति योग या ज्ञान योग के द्वारा परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं वे महान पुरुष उच्चकोटि के ज्ञानी महात्मा समझे जाते हैं। जो कर्म योग के द्वारा महापुरुष हुए हैं उनके लक्षण गीता में इस प्रकार बतलाए गए है... ’अर्जुन जिस काल में यह पुष्य मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों कि प्राप्ति में जो सर्वथा निस्पृह है तथा जो राग, भय और क्रोध से रहित है, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि का कहा जाता है। ‘ऐसे लक्षण जिनमें हो ऐसे ज्ञानी महात्मा पुरुषों के आचरणों का हमें अनुकरण करना चाहिए। उनकी आज्ञा के अनुसार श्रद्धा भक्तिपूर्वक चलने पर अविवेकी अज्ञानी पुरुष का भी कल्याण हो जाता है। 
 
गीतादि शास्त्रों पर श्रद्धा, विश्वास...
 
गीता जैसे शास्त्रों में जो भी उपदेश है वे सत्य एवं कल्याणकारक है। ऐसा समझकर श्रुति एवं ऋषिप्रणीत स्मृति, इतिहास पुराण तथा गीता आदि जितने भी शास्त्र हैं, उनमे बतलाई हुई भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, कर्म योग और सदाचार आदि की सभी बातों को श्रद्धा भक्ति और विश्वासपूर्वक काम में लाने की चेष्टा करनी चाहिए। उदाहरण के लिए श्रीमद्भागवत गीता को ही ले लीजिए। महाभारत में बतलाया गया है, ...’गीता सर्वशास्त्रमयी है, गंगा सर्वतीर्थमयी है, श्रीहरि सर्वदेवमय हैं और मनु सर्ववेदमय हैं।'
 
 
गीता संपूर्ण शास्त्रों का सार है एवं सारे उपनिषदों का भी सार है। गीता की बड़ी भारी महिमा है। जो गीता के अर्थ और भाव को समझकर स्वाध्याय करता है, उसके द्वारा भगवान ज्ञान यज्ञ से पूजित होते हैं....यह स्वयं भगवान ही कहते हैं।
 
अपनी आत्मा पर श्रद्धा, विश्वास...
 
प्रथम यह विश्वास करना चाहिए कि मनुष्य जो कुछ बुरा या भला अथवा मिला हुआ कर्म करता है, उसका फल उसको इस जन्म में और भावी जन्मों में अवश्य मिलता है। किंतु जो निष्काम भाव से कर्म किया जाता है उसका फल कहीं नहीं मिलता।


‘कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा या बुरा और मिलाजुला– प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य मिलता है, किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं मिलता। इससे यह सिद्ध होता है कि मरने के बाद भी परलोक है। जो ऐसा समझता है उसके द्वारा पाप कर्म नहीं हो सकता। मरने के बाद आत्मा अवश्य है। इसमें श्रद्धा, विश्वास करना यही तो अपनी आत्मा पर विश्वास करना है।
 
 
यदि ईश्वर, महात्मा, शास्त्र और युक्ति पर भी विश्वास न हो तो भी मनुष्य को कम से कम अपनी आत्मा पर तो अवश्य ही विश्वास करना चाहिए। किसी एक पर विश्वास करने से हमारा कल्याण हो सकता है, अगर चारों पर ही विश्वास हो जाएं तो इसमें कहना ही क्या है। 

(इस आलेख में व्‍यक्‍त‍ विचार लेखक की नि‍जी अनुभूति है, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)

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