Shri Krishna 26 July Episode 85 : अग्रपूजा में शिशुपाल ने जब किया श्रीकृष्ण का अपमान

अनिरुद्ध जोशी
रविवार, 26 जुलाई 2020 (22:11 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 26 जुलाई के 85वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 85 ) में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद उनके द्वारा नारदजी के कहने पर राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लेना और श्रीकृष्ण द्वारा जरासंध को द्वंद्व युद्ध में भीम द्वारा उसके वध की योजना को सफल रूप में अंजाम देने के बाद श्रीकृष्ण उसके पुत्र सहदेव को मगध का राजा बना देते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
फिर वे सहदेव से कहते हैं कि महाराज युधिष्ठिर बहुत शीघ्र राजसूय यज्ञ करने वाले हैं उसमें तुम मगध के प्रतिनिधि होकर आओ। सहदेव कहता है- जो आज्ञा प्रभु। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- जाओ जरासंध मेरे सम्मुख मृत्यु होने के कारण तुम भी स्वर्ग के अधिकारी हुए। इसके बाद भीम कहते हैं- मधुसुदन अभी 85 बंदियों को मुक्त करना शेष है। श्रीकृष्ण कहते हैं अवश्य।
 
कोठरी में कैद एक राजा कहता है कि निश्चय हमारी पुकार भगवन ने सुन ली है। तब दूसरा कहता है कि हां इस अंधेरी कोठरी में पहली बार प्रकार की किरण देखने को मिली है। ये प्रकाश उन्हीं भगवान का है। लगता है कि वो आ गए। तभी सभी कैदी राजा श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम को देखते हैं। सभी भगवान श्रीकृष्ण की जय जयकार करने लगते हैं।
 
श्रीकृष्ण सैनिकों को आदेश देते हैं कि इन्हें मुक्त कर दो। सैनिक कारागार के द्वार खोल देते हैं तो सभी राजा दौड़कर श्रीकृष्ण पास आकर खड़े होकर भगवान श्रीकृष्ण की जय जयकार करने लगते हैं। फिर सभी हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। श्रीकृष्ण सभी को आशीर्वाद देते हैं और कहते हैं- आप लोग अब स्वतंत्र हैं। पांडु पुत्र भीम ने महाराज जरासंध का वध कर दिया है। इसलिए आप सब लोग अपनी अपनी राजधानियों में लौट सकते हैं। यह सुनकर सभी में हर्ष व्याप्त हो जाता है। 
 
फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि आज से आप इंद्रप्रस्थ राज्य के आधीन है और शीघ्र ही महाराज युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करने वाले हैं जिसमें आप सबको आना है। इसके बाद सभी भगवान श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगते हैं।
 
यह खबर हस्तिनापुर पहुंच जाती है तो द्रोणाचार्य के साथ भीष्म पूछते हैं- जरासंध का वध भीम ने किया है? तब विदुर कहते हैं हां। यह सुनकर भीष्म कहते हैं- असंभव! ये मिथ्‍या है। जरासंध का वध भीम नहीं कर सकता। तब द्रोणाचार्य कहते हैं- परंतु विदुर की सूचना तो यही है। भीष्म कहते हैं- यदि यह विदुर की सूचना है तो यह सत्य हो सकता है कि जरासंध का वध भीम ने ही किया होगा परंतु वास्तव में इसका श्रेय श्रीकृष्ण को ही जाएगा आचार्य। 
 
इस पर विदुर कहते हैं कि सूचना तो यह भी मिली है तात कि महाराज युधिष्ठिर आपको प्रणाम करने के लिए स्वयं यहां आने वाले हैं। वे आपसे आशीर्वाद मांगने आने वाले हैं। यह सुनकर भीष्म पूछते हैं आशीर्वाद वो किसलिए? तब विदुर कहते हैं वो किसी राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले हैं। यह सुनकर भीष्म कहते हैं कि आह! क्या सुखद समाचार है विदुर। उत्तम अति उत्तम। युधिष्ठिर का ये संकल्प हमारे कुल की गरीमा को और बढ़ाने वाला है। कई पीढ़ियों में से हमारे कुल में कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ जिसने राजसूय यज्ञ किया हो।
 
यह सुनकर द्रोणाचार्य कहते हैं कि मेरे शिष्य वीर पांडव तो निकले तात। तब भीष्म कहते हैं- निश्चय ही आपको अपने पुत्रों का आचार्य बनाते समय मैंने ये कल्पना भी नहीं की थी आचार्य कि मेरे कुल में कोई राजसूय यज्ञ करने वाला भी निकलेगा। एक आचार्य होने के नाते आपको गर्व तो है ना? तब द्रोणाचार्य कहते हैं- क्यों नहीं तात। एक आचार्य के लिए इससे बढ़ी और क्या बात हो सकती है।
 
उधर, धृतराष्ट्र कहते हैं- गांधारी विदुर के पास इंद्रप्रस्थ राज्य का एक राजदूत आया है। तब गांधारी पूछती है किसलिए महाराज? तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ करने के लिए हमारी अनुमति मांगने के लिए आ रहे हैं। यह सुनकर विदुर के पास खड़ा शकुनि झल्ला जाता है। तब गांधारी कहती है कि तो उसे अवश्य अनुमति दीजिये महाराज। राजसूय यज्ञ युधिष्ठिर करे या दुर्योधन, कोई भी करे यश तो कुरुवंश का ही बढ़ता है। आपको इसकी स्वीकृति देनी ही चाहिए और दुर्योधन को भी अपने भाई के इस महोत्सव में शामिल होने के लिए अवश्य जाना चाहिए।
 
शकुनि फिर झल्ला जाता है। तब धृतराष्ट्र कहते हैं- शकुनि मैं तो युधिष्ठिर के इस संकल्प से अत्यंत प्रसन्न हूं परंतु युवराज दुर्योधन को तुम्हीं समझा सकते हो। तब शकुनि कहता है अवश्य जिजाश्री अवश्य समझाऊंगा। 
 
फिर शकुनि से दुर्योधन कहता है परंतु मामाश्री हम यदि उनके उत्सव में गए तो हमारी परिस्थिति भी इंद्रप्रस्थ के राज्य के अधीन राजाओं जैसी होगी ना? तब शकुनि कहता है कि देखो भांजे दो ही रास्ते हैं या तो युधिष्ठिर को सम्राट न मानो तो उससे युद्ध करो जिसकी अनुमति ना तो पितामह भीष्म देंगे, ना गुरु द्रोण और ना तुम्हारे पिताश्री। यह सुनकर दुर्योधन कहता है इसका अर्थ तो यह हुआ मामाश्री की हमने सहज में ही उनकी आधीनता को स्वीकार किया है जो बाल्यकाल से हमारे शत्रु है। इस पर शकुनि कहता है नहीं भांजे नहीं। एक दूसरा रास्ता भी है।... वो क्या? वो ये कि चार और दो छह।...यह कहकर शकुनि हंसता है और फिर कहता है- छह भाजे छह।..वो ये कि तुम्हें उनका छोटा भाई बनकर जाना होगा। 
 
तब दुर्योधन कहता है एक दास की तरह? शकुनि कहता है- दास की तरह नहीं भांजे बल्कि एक भागीदार की तरह। अर्थात ये कि तुम भी उनकी यश और कीर्ति में उनके हिस्सेदार बनकर एक सुखद परमानंद का नाटक करो। क्योंकि इस नाटक के साथ मेरी एक योजना जुड़ी हुई है। फिर शकुनि बताता है कि जरासंध के वध के बाद तुमको और बलराम को छोड़कर दुनिया में अब कोई गदाधर नहीं बचा जो भीम को गदा युद्ध में हरा सके। अर्जुन के धनुष से तो कर्ण निकट लेगा लेकिन अब इस उत्सव में सम्मलित होकर तुन्हें किसी तरह बलराम को फंसाना होगा। देखो भांजे कृष्ण तो चलाक है मगर बलराम भोलाभाला है। अपनी चिकनी-चुपड़ी बातों में उसे लेकर उसे अपना गुरु बना डालो। तो फिर समझो की तुम्हारा काम बन गया। यदि बलराम ने तुम्हें गदा युद्ध में प्रवीण कर दिया तो समय आने पर भीम तुम्हारे सामने अपने आप घुटने टेक देगा।...दुर्योधन को शकुनि की ये योजना समझ में आ जाती है।
 
फिर युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ की सभा में पांचों पांडव एक जगह खड़े हैं। सिंहासन पर कोई बैठा नहीं रहता है। सभा में शिशुपाल, भीष्म, विदुर, दुर्योधन आदि कई मंत्री-महामंत्री, राजा-महाराज उपस्थित रहते हैं तब द्रौपदी का भाई धृष्टदुम्न खड़े होकर सभी का अभिवादन करके कहता है कि इस राज्यसभा में सर्वप्रथम हम सभी को निर्णय लेना है कि इस समारोह में अग्रपूजा के योग्य कौन ऐसा महापुरुष है जिसकी चरण पूजा महाराज युधिष्ठिर स्वयं अपने हाथों से करेंगे। क्योंकि अग्रपूजा करने के पश्चात ही सम्राट युधिष्ठिर राजमुकुट धारण करने के अधिकारी होंगे। विधान के अनुसार हमें सबसे पहले अग्रपूजा के अधिकारी का ही चयन करना होगा। सो आप लोग अपनी मति के अनुसार उस महापुरुष का नाम बताएं जिसे आप अग्रपूजा के योग्य समझते हों। ऐसा कहकर धृष्टदुम्न अपने स्थान पर बैठ जाता है।
 
यह सुनकर भीष्म कहते हैं कि मेरे विचार में संपूर्ण आर्यावर्त में द्वारिकाधीश के अतिरिक्त ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो अग्रपूजा का अधिकारी बन सके। यह सुनकर विदुर भीष्म का समर्थन करते हैं। इस तरह कई राजा और ऋषि इस बात का समर्थन करते हैं तब धृष्टदुम्न उठकर कहते हैं- तो फिर यह राज्यसभा सर्वसम्मति से अग्रपूजा का सम्मान द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के लिए ही निश्चित करती है।... यह सुनकर दुर्योधन और शिशुपाल झल्ला जाते हैं।
 
फिर धृष्टदुम्न कहते हैं- इस सभा के अग्रपूजा के अधिकारी द्वारिकाधीश श्रीकृष्‍ण इस सभा के मध्य पधार रहे हैं। सभी द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगते हैं। द्वार से श्रीकृष्ण और बलराम भीतर आते हैं। सभी खड़े होकर उन्हें प्रणाम करते हैं लेकिन शिशुपाल, शकुनि और दुर्योधन बैठे रहते हैं।
 
सभी पंडित-पुरोहित श्रीकृष्ण और बलराम के पास आकर खड़े हो जाते हैं। तब एक परोहित उन्हें सिंघासन की ओर चलने का संकेत करते हैं। श्रीकृष्ण सभी के जय-जयकार और फूलों से स्वागत के बीच सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं। तभी बीच में ही शिशुपाल का क्रोध फूट पड़ता है और वह चीखकर दोनों हाथ उठाकर कहता है- ठहरो। 
 
सभी यह सुनकर स्तंब्ध हो जाते हैं। हाथ में पूजा की थाली लिए खड़े पांडव उसकी ओर देखते हैं। भीष्म, द्रोण और विदुर भी यह देखकर सोच में पड़ जाते हैं। श्रीकृष्ण भी उसे देखकर मुस्कुराकर आगे बढ़ने लगते हैं तब शिशुपाल चीखता है- मैं चेदिराज शिशुपाल आप सभी के इस निर्णय का विरोध करता हूं। श्रीकृष्‍ण मुस्कुराते रहते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। तब शिशुपाल कहता है- मैं नहीं मानता श्रीकृष्ण को अग्रपूजा का अधिकारी, नहीं मानता। 
 
इस आदमी में ऐसा कोई गुण नहीं है जो इसे महापुरुष सिद्ध करता हो, अरे ये तो भगोड़ा है भगोड़ा। सम्राट जरासंध को युद्ध में ये पीठ दिखाकर भागा था।...यह सुनकर राजा द्रुपद खड़े होकर कहते हैं- नहीं शिशुपाल नहीं। तब शिशुपाल कहता है- आप चुप रहिये महाराज द्रुपद...आप लोगों ने इसे व्यर्थ ही महान बना रखा है। इसे महानता का पद दे रखा है।...श्रीकृष्ण कुछ नहीं बोलते हैं और आगे बढ़ते हुए उसके सामने से गुजरने लगते हैं...तब शिशुपाल कहता है- परंतु ये तो चोर है चोर।
 
यह सुनकर बलराम शिशुपाल की ओर दौड़ने लगते हैं तो श्रीकृष्ण पीछे से उसका हाथ पकड़कर उसे रोक लेते और धीरज धरने का कहते हैं और पुन: मुस्कुराकर आगे बढ़ जाते हैं। पीछे से शिशुपाल कहता है- स्त्री लोलुप है ये, कामी है। अधर्मी है अधर्मी। अरे! इसके पिता का कोई ठिकाना नहीं। कभी कहता है कि मैं नंद ग्वाले का पुत्र हूं और कभी कहता है कि वासुदेव मेरा पिता है। अरे इसे ठीक तरीके से अपने बाप का नाम तक याद नहीं, झूठा है झूठा। 
 
यह सुनकर बलराम खुद को रोक नहीं पाते हैं और पलटकर क्रोधित होकर चीखते हैं शिशुपाल। शिशुपाल भी चीखकर कहता है- अरे हट। बलराम अंगुली दिखाकर जोर से चीखते हैं- शिशुपाल। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया। क्या कर रहो हो? मैं इसके सौ अपराध क्षमा करने के लिए वचनबद्ध हूं। तब बलराम पूछते हैं- किसे वचन दिया है भैया तुमने। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- अपनी बड़ी बुआ को जो इसकी माता है। देवी कुंती की बड़ी बहन श्रुतिश्रवा का पुत्र है ये। तब बलराम कहते हैं- लेकिन ये तो पराकाष्ठा है कन्हैया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं तुम चिंता ना करो बड़े भैया मैं इसके अपराध स्वयं गिन रहा हूं। यह कहकर श्रीकृष्ण पुन: आगे बढ़ने लगते हैं।
 
‍यह देखकर शिशुपाल कहता है- दोखो तो निर्लज्ज को। कैसे अपनी प्रशांसा सुन रहा है। पूरा चिकना घढ़ा है चिकना घढ़ा, दुष्ट।...सभी शिशुपाल की ये बात सुनकर स्तंब्ध खड़े रहते हैं। तब वह कहता है कि ये दूसरों का वध कराने में दक्ष है। अरे ये तो पूरा प्रपंची है प्रपंची।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण पलटकर क्रोधित होकर कहते हैं- शिशुपाल मैंने तुम्हारी मां को तुम्हारे 100 अपराध क्षमा करने का वचन दिया था। उन अपराधों की संख्‍या अब पूरी होने वाली है जरा ध्यान रखो। ऐसा कहकर श्रीकृष्‍ण और बलराम पुन: पलटकर सिंघासन की ओर सीढ़ियां चढ़ने लगते हैं। 
 
तब पीछे से शिशुपाल कहता है- क्या कर लेगा तू...क्या कर लेगा तू कुल के कलंक? यह सुनकर श्रीकृष्ण सीढ़ियां चढ़ते हुए कहते हैं छियानवे हो गए हैं। तब शिशुपाल चिल्लाता है दंभी जालसाज। तब श्रीकृष्ण सीढ़ियां चढ़ते हुए मुस्कुराते हुए कहते हैं सत्तानवे हो गए हैं। यह देखकर धृष्टदुम्न भी मुस्कुरा देता है।
 
तब शिशुपाल चीखकर कहता है धूर्त, चांडाल। 
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं अट्ठानवे। तब शिशुपाल कहता है- मेरी वाग्दत्ता रुक्मिणी का हरण करने वाले दुष्ट पापी। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- निन्यानवे।...भीष्म, विदुर, द्रोण सभी यह घटना आश्‍चर्य से देखते हैं।
 
तब शिशुपाल कहता है परपीड़क, धूर्त, चालाक, निंदनीय है तू। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- पूरे सौ। ऐसा कहते ही श्रीकृष्ण सिंघासन के पास पहुंचकर पलट जाते हैं और कहते हैं कि शिशुपाल अब एक शब्द भी आगे बोला तो वो तुम्हारा अंतिम शब्द होगा। सावधान शिशुपाल सावधान।
 
यह सुनकर शिशुपाल हंसते हुए ताली बजाकर कहता है- देखो तो गीदड़ सिंह को धमकी दे रहा है। अरे जा..जा तेरी मां से पूछकर आ की तेरे बाप का नाम क्या है।...यह सुनकर बलराम क्रोधित होकर देखने लगते हैं तो श्रीकृष्ण शिशुपाल को देखकर मुस्कुराते हैं। तब शिशुपाल कहता है- जा जाकर पूछकर आ कि तेरी धमनियों में किस का लहू बह रहा है...अरे जा जादूगर जा। 
 
यह सुनकर अक्रूरजी के साथ सभी यादव अपनी तलवार निकाल लेते हैं और कहते हैं- बस शिशुपाल बस। अक्रूरजी कहते हैं बहुत हुआ। अब हम सब मिलकर तुझे जीवित नहीं छोड़ेगे। यह देखकर शिशुपाल भी तलवार निकाल लेता है। उसे देखकर दुर्योधन और शकुनि भी तलवार निकालकर कहता है कि इस सभा में शिशुपाल अकेला नहीं है, हम भी उसके साथ है। 
 
शिशुपाल कहता है कि इससे पहले की तुम लोग मुझे हाथ लगाओ मैं इस कृष्ण को ही जीवित नहीं छोड़ंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण तेश में आकर कहते हैं- तुमने मुझे विवश कर दिया शिशुपाल। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण अपनी अंगुली को ऊपर उठाते हैं तो उनके हाथ में सुदर्शन चक्र घुमने लगता है। यह देखकर सभा अचंभित रह जाती है। दुर्योधन और शकुनि पीछे हट जाते हैं। तक्षण ही वह चक्र सीधा जाकर शिशुपाल की गर्दन अलग कर देता है और उसका सिर और धड़ भूमि पर गिर जाता है। यह देखकर सभी अचंभित रह जाते हैं और तक्षण ही सुदर्शन पुन: लौटकर अंगुलियों पर गायब हो जाता है। सभी श्रीकृष्ण के हाथ जोड़ने लगते हैं। शकुनि और दुर्योधन चुपचाप अपनी जगह पर जाकर बैठ जाते हैं। बलराम और श्रीकृष्ण मुस्कुराते हैं। 
 
कुछ देर बाद शिशुपाल की मृत देह से उसकी आत्मा देवरूप में निकलकर श्रीकृष्ण के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें प्रणाम करती हैं और कहती हैं- हे दीनदयाल अपके पार्षद जय का प्रणाम स्वीकार कीजिये। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तुम्हारा कल्याण हो। तीन जन्मों के पश्चात आज तुम श्राप मुक्त हो गए। सो हे जय तुम हमारे वैकुण्ठ लोक में जाओ। देखो माता लक्ष्मी ने तुम्हें लिवाने के लिए दिव्य विमान भेजा है। जाओ तुम्हारा कल्याण हो। फिर जय रथ पर बैठ कर चले जाते हैं। 
 
प्रभु की ये लीला देखकर सभी अ‍चंभित हो जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण शिशुपाल की मृत देह की ओर संकेत करके सैनिकों से कहते हैं कि इन्हें ले जाओ। सैनिक शिशुपाल की देह को उठाकर ले जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- वीप्रवरों आप लोग अपना कार्य पूरा कीजिये। फिर श्रीकृष्ण सिंघासन पर बैठ जाते हैं तब युधिष्ठिर सहित सभी पांडव उनके चरण धोकर उनकी विधिवत रूप से पूजा अर्चना करते हैं। इसके बाद उनके समक्ष यज्ञ का प्रारंभ होता है। जय श्रीकृष्णा। 

रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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